गुरुवार, दिसंबर 09, 2010

सिंदूरी आभा






























टूटन क्या होता है...
मैं जानती हूँ...
तुम जानते हो शायद...
अब ये टूटन न हो..
अब ये बिखराव न हो...
बस यही कामना...
यही चाहत...
और कुछ नहीं...
तुम मुझे चाहो...
मैं तुम्हे चाहूँ...
जीवन यही तो है...
मंगलमय और सुंदर....
थोड़ी नोक झोक....
थोड़ी मनुहार...
थोड़ा दुलार...
मुझे मेरे पति का, जो तुम हो...
तुम्हे तुम्हारी पत्नी का, जो मैं हूँ...
सिंदूरी आभा सा प्यार...
दूर तक गहराता...

मंगलवार, नवंबर 30, 2010

कहानी रेत की

जाते समय तुम मेरी हंसी ले गए
मेरी मुस्कान भी चली गयी
अब तो इन्तेहा हो गयी
प्यार जैसे मर गया
रेत हो गयी मैं
भरभराती फिसलती
बिखरती उड़ती
धूसरित होती
रेत भी भला
क्या कभी हंसती है
स्वीकार लेती है बस उड़ना
बिखरना फिसलना

शुक्रवार, अक्तूबर 22, 2010

अंडरगारमेंट्स!


अब अंडरगारमेंट्स छिपाने की चीज नहीं, बल्कि बताने की चीज है। आपने कौन सा रंग पहना है, उस रंग का क्या महत्व है, यह सब अब लड़कियां धड़ल्ले से जाहिर कर रही हैं। ए क नए सर्वेक्षण के अनुसार, अंडरगारमेंट्स का कलर राज खोलता है कि आप किस तरह की प्रेमिका हैं। इससे यह पता चलता है कि लड़कियां अब सकुचाती नहीं, बल्कि बोल्ड हो रही हैं। अंडरगारमेंट्स किस तरह लड़कियों को आ॓पन कर रहा है, जानिए स्पर्धा की रिपोर्ट से-
क्या आपने कभी सोचा है कि आपके द्वारा पहने जाने वाले अंडरगारमेंट्स आपके प्यार का पैरोमीटर हो सकते हैं यदि नहीं सोचा है तो जान लीजिए कि इसमें काफी हद तक सचाई है। लड़कियों द्वारा पहने जाने वाले अंडरगारमेंट्स के रंग बताते हैं कि आप किस तरह की प्रेमिका हैं, ए ेसा कहना हमारा नहीं, बल्कि ब्रिटिश साइकोलॉजिस्ट डोना डॉसन का है। रेड कलर के अंडरगारमेंट्स पसंद करने वाली लड़कियां प्यार में शर्मीली नहीं होतीं, तो यदि आपकी पसंद पिंक कलर की इनरवियर है तो आप कभी भी प्यार में पहल नहीं करेंगी। सदाबहार कलर व्हाइट को पसंद करने वाली लड़कियां हमेशा सीखने को उत्सुक रहती हैं।


यह कोई कोरी बकवास नहीं, या केवल ए क साइकोलॉजिस्ट का कहना नहीं है, बल्कि ए क सर्वेक्षण प्यार और अंडरगारमेंट्स के बीच के इस अजब-गजब रिश्ते का खुलासा करता है। सर्वेक्षण में पाया गया कि 7२ फीसद महिलाए ं क्लासिक व्हाइट, ब्लैक या ैंसी लेस वाले अंडरगारमेंट्स की बजाय न्यूड या स्किन कलर की अंडरगारमेंट्स खरीदना पसंद करती हैं। यही वजह है कि हर साल न्यूड कलर के अंडरगारमेंट्स में 38 फीसद की बढोत्तरी होती रहती है। ए ेसा अंडरगारमेंट्स की ंपनी डेबेनहैम्स का कहना है। ए ेसा नहीं है कि यह र्सि सर्वेक्षण की ही बात है। इसका पुक्ष्ता प्रमाण हॉलीवुड सेलिब्रिटी इवा मेंड्स की बातों में मिलता है। इवा ने हाल ही में अपने अंडरगारमेंट्स की पसंद को लेकर खुलासा किया था कि वह न्यूड या बेसिक अंडरवियर में खुद को सबसे ज्यदाा सेक्सी महसूस करती हैं। यही नहीं, पॉप स्टारलेट केटी पेरी ने भी नामी पत्रिका रोलिंग स्टोन की कवर गर्ल बनने के लिए सेक्सी लेस वियर की बजाय सिंपल न्यूड ब्रा और और पैंटी को पसंद किया। न्यूड अंडरगारमेंट्स का मतलब यह है कि किसी से कुछ छिपाना नहीं यानी सब कुछ दिखा देना। वैसे भी जमाना खुलेपन का है। न्यूड कलर की ब्रा नैचुरल, ईजी-गोइंग, डाउन टू अर्थ और ट्रांसपेरेंसी की प्रतीक है। इस रंग की ब्रा पहनने वाली महिला रिलैक्स रहती है, उसके पास छिपाने को कुछ नहीं होता। वहीं दूसरी आ॓र, रेड, यलो, ऑरेंज जैसे रंग उत्साह का अहसास जगाते हैं। हमारे ब्लड प्रेशर को बढ़ाते हैं, दिल की धड़कन तेज कर देते हैं और सांसों की आवाजाही भी तेज हो जाती है।


इस सर्वेक्षण के बाद डोना डॉसन ने ने हर कलर की ब्रा का मतलब निकाला है। रेड कलर की ब्रा जहां पैशनेट, ए नर्जेटिक, ड्रामैटिक होने का प्रतीक है तो ब्लैक ब्रा पावरफुल, इंडिविजुअलस्टिक और सल्ट्री होने की। व्हाइट ब्रा भोलापन लेकिन सलाह के लिए तैयार महिला काप ्रतीक है तो पिंक ब्रा रोमांटिक और सेंसुअस लड़की का प्रतीक है। यही वजह है कि पिंक ची अभियान वैलेंटाइन डे पर शिव सेना वालों को मजा चखाने के लिए शुरू किया गया था, क्योंकि पिंक कलर रोमांस का प्रतीक है। इस ैम्पेन को कई लोगों ने ज्वाइन कर लिया था। करीब डेढ़ हजार पिंक कलर की पैंटीज शिव सेना वालों को भेजी गई थी। ए डमैन प्रहलाद कड़ को यह आइडिया काफी बढ़िया और मजेदार लगता है। उनके अनुसार, ड्रिंक पीने वाली लड़कियों को पीटने पर विश्वास करने वालों को पिंक कलर की पैंटी भेजना थोड़ा हैरान करने वाला है। लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इस ैम्पेन ने इस तरह की गतिविधियों की नई शुरूआत कर दी है।


ए ेसा नहीं है कि अंडरगारमेंट्स को लेकर कुछ नया अभी ही किया गया है। कम ही लोगों को पता होगा कि इस तरह की गतिविधि पिंक चढडी अभियान से पहले ही म्यामां में की गई थी। अक्टबूर 2व्07 में म्यामां के महिला संगठन लान्ना ए क्शन फॉर बर्मा ने शांति प्रस्तावना के मद्देनजर पैंटी की पेशकश की थी। उनका लक्ष्य पैंटी के जरिए मिलट्रिी द्वारा म्यामां की जनसंक्ष्या विशेषकर महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को रोकना था। इस ैम्पेन को म्यामां सहित ऑस्ट्रेलिया, फिलिपीन्स, जर्मनी, स्पेन, स्वीडन, स्विटजरलैंड, पोलैंड, अमेरिका और ब्राजील में लांच किया गया। इन देशों की महिलाओं से कहा गया कि वे अपनी पैंटी म्यामां के स्थानीय दूतावास भेजें। दरअसल म्यामां में यह अंधविश्वास है कि महिलाओं के अंडरपैंट के संर्प में आने से शक्ति क्षीण हो जाती है। अब वह दिन नहीं रहा जब अपने अंडरगारमेंट्स के बारे में बताने से महिलाए ं सकुचाती थी। अंडरवियर इम्पावरमेंट ने विश्व में नई लहर पैदा कर दी है। ए ेसे में अंडरगारमेंट्स के रंगों को लेकर किया गया यह ताजा सर्वेक्षण लड़कियों के हौसले और बुलंद कर रहा है।


पिछले दिनों ब्रा को लेकर ए क नया ैम्पेन अपने देश में और देखने को मिला। ब्रेस्ट ैंसर को सपोर्ट करने के लिए लड़कियों को कहा गया कि वे जिस रंग की ब्रा पहनती हैं, वह रंग अपने स्टेटस मैसेज में लिखें। आश्चर्यजनक तो यह रहा कि सभी ने इसमें उत्साहित होकर भाग लिया और अपनी ब्रा का कलर स्टेटस मैसेज में लिखा भी। कोई भी यह रंग बताने में सकुचाया नहीं, बल्कि कुछ लड़कों ने भी इस ैम्पेन में जमकर भाग लिया। इसे ब्रा कलर ैम्पेन का नाम दिया गया। कॉज्ञेडियन वीर दास इस ंडे को अच्छा मानते हुए कहते हैं कि काश मैं भी ब्रा पहनता तो अपनी ब्रा का रंग जरूर सबको बताता। पर अफसोस मैं लड़का हूं, लड़की नहीं। ए क्सपोर्ट हाउस में काम करने वाली नेहा शर्मा कहती हैं, ’मुझे इस तरह की ए क्टिविटी अच्छी लगती है। खुशी तो इस बात की भी है कि अब लड़कियां किसी भी चीज को लेकर चुप नहीं हैं, वे खुल रही हैं। उन्हें अपनी स्वतंत्रता का अहसास है।’


अंतर्मन का दर्पण

अंडरगारमेंट्स के कलर को लेकर हुआ यह सर्वेक्षण हो या रंगों को लेकर हुआ कोई और सर्वेक्षण, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि हम जो भी पहनते हैं या हमारी जीवनशैली जैसी होती है, उससे हमारे अंतर्मन और हमारी चाहतों का पता चलता है। भड़कीले रंग वाले पोशाक पहनने वाले दूसरों का ध्यान अपनी आ॓र आकर्षित करना चाहते हैं। यह सब आपके अंदर की दशा को दर्शाता है। कई लोग टैटू बनवाते हैं, कुछ तो अपने प्राइवेट पार्ट्स पर भी टैटू बनवाने लगे हैं, यह सब उस व्यक्ति के अंदर के द्वंद्व को दर्शाता है, उसकी चाहतों को बताता है। इसी तरह अंडरगारमेंट्स को लेकर देश-दुनिया में चल रही गतिविधियों के लिए यह कहा जा सकता है कि इससे लोग दूसरों का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। सभी जानते हैं कि अंडरगारमेंट्स ए ेसी चीज है, जो सहज ही दूसरों को आकर्षित करती है।

-डॉ समीर पारिख वरिष्ठ मनोचिकित्सक फोर्टिस अस्पताल


मेल ब्रा

पुरूषों के लिए ब्रा! यह सुनने में भले ही बेहद अजीब लग रहा हो, पर सच तो यही है कि जापान के बाजार में इन दिनों मेल ब्रा की धूम मची है। इसे ईजाद किया है अंडरवियर मेकर मसायुकी सुचिया ने। मसायुकी ने मेल ब्रा को लेकर सात सालों तक लगातार सोचा और फिर इसे लांच किया। मसायुकी कहते हैं कि मुझे समझ में नहीं आता था कि मेल ब्रा आखिर पुरूषों की किस जरूरत को पूरा करेगा। पिछले साल उन्हें अपने इस सवाल का जवाब मिला। उनकी टोक्यो स्थित ंपनी विशरूम में कुछ ग्राहकों ने फोन करके उन्हें बताया कि ब्रा पहनने से उनके मसल्स न बड़े दिखते हैं और ना ही उनकी पोश्चर सही होती है। बल्कि ब्रा पहनने से वे कहीं ज्यादा रिलैक्स महसूस करते हैं। पुरूषों के पक्ष से देखा जाए तो यह साइकोलॉजिकल ही है। फिर मसायुकी ने 8व् सेमी, 8५ सेमी और 9व् सेमी में ए -कप ब्रा ऑर्डर किए । अपनी ंपनी के ऑनलाइन शॉपिंग मॉल राकुटेन में उन ब्रा को डालने के तुरंत बाद सभी बिक गए । ए क महीने के अंदर ही टीवी कार्यक्रमों और न्यूजपेपर में दिखाए जाने लगे। हालत यह है कि अब प्रति माह 1व्0व् मेल ब्रा बनाए जा रहे हैं। मसायुकी का कहना है कि जापानी पुरूषों को काफी तनाव होता है और ब्रा इस तनाव से उन्हें मुक्ति दिलाते हैं। मसायुकी द्वारा तैयार किए गए मेल ब्रा के खरीदारों की उम्र 3व्-4व् वर्ष है। मसायुकी के अनुसार, ए क ग्राहक ने बताया कि इस ब्रा को पहनने के बाद वह अपनी फीलिंग्स को ’रीसेट‘ कर पाता है। यदि कुछ बुरा होता है तो वह ब्रा पहन लेता है और उसे लगता है कि वह अगले दिन लड़ने को तैयार है। मसायुकी को उम्तर के 5व्वें और 6व्वें पायदान के लोगों की आ॓र से भी ऑर्डर मिलने लगे हैं। यही नहीं, विदेशों से खासकर अमेरिका से भी लोग जानकारी के लिए मसायुकी से बात कर रहे हैं।

सोमवार, अगस्त 09, 2010

तीखा नमक


टूटती बिखरती
एक स्त्री
नहीं जानती
नहीं मानती
दुनिया के तमाम थपेड़े
जो कर देते हैं होम उसे
जला डालते हैं
मन को
रूखे कर जाते हैं
हाथ की कोमलता
होठों की अरुणाई
और माथे का उत्थान
उत्थान नहीं रह जाता
वो तो सपाट हो गया है
आँखें भी अब
चंचल नहीं रही
उनमें समा गया है
नमक तीखा
देर तक
एहसास देता तीखेपन का
एड़ी भी अब
नरम कहाँ रही
दरारें हो गयी उनमें
नेह कहीं गया है दरक
क्या उसे रही
चाह ज्यादा की

शुक्रवार, जुलाई 16, 2010

मैं खुश हूँ...



खुशनुमा एहसास
खुशनुमा प्यार
अजनबी सा बिलकुल नहीं
मेरा अपना संजोया संव्राया

भले ही छूट गए तुम
सशरीर
लेकिन आत्मा मेरी
तुम्हारे साथ रही

वही तुम्हारे अन्दर
तुम्हारे मन में बसी बसाई
अब जब तुम हो सशरीर भी
तो मेरे कण कण में तुम
मेरी उँगलियों में
मेरे होठों पर
मेरे गालों पर
दौड़ती तुम्हारी भाषा
तुम्हारी छूवन
तुम्हारे बोल
तुम्हारा स्पर्श...

सोमवार, जून 14, 2010

पा लिया
























जी भर कर जब देखा तुम्हे
तुम वही लगे
कुछ मेरे अपने कुछ पराये
कुछ जाने कुछ अनजाने
कुछ सोचे कुछ समझे
कुछ प्यारे कुछ पुकारे

अब जब तुम नहीं हो
मेरे सामने न होते हुए भी मेरे हो
एकदम अपने
मानो मेरे अन्दर बसे
कुछ उलझे कुछ उलझाते
कुछ सुलझे कुछ सुलझाते

आज भी तुम उतने ही करीबी हो
मेरे अन्दर सांस लेते
मेरी आँखों में बसे
मेरे होठों पर मुस्काते
मेरे स्पर्श में बसे

मेरी हर धड़कन में बसे
मेरी हर सांस में समाये
हाँ तुम ही वो
जिसे मैंने ढूंढा
आखिरकार पा भी लिया



शनिवार, जून 12, 2010

प्यार क्या है


प्यार क्या है? मैंने खुद से यह सवाल कई बार पूछा है. मन में कई जवाब आते भी हैं. कभी लगा प्यार पाना है तो कभी लगा की प्यार देना है. कभी लगा की प्यार छोड़ देना है. आपका होगा तो वापस आयेगा जरुर. आता भी है. लेकिन फिर चला जाता है. इस प्यार को क्या कहेंगे? ये कैसा प्यार है जो आता है और फिर चला जाता है? कहते हैं फुल की खुशबु की तरह प्यार होता है. तो कुछ लोग कहते हैं की प्यार जादुई होता है. पर मैंने जिस प्यार को महसूस किया है, वो अजीबोगरीब किस्म का है. मन में बेचैनी जगा जाता है और फिर छोड़ जाता है अकेले सुबकने के लिए. तब मन में आता है की इस प्यार को क्या कहें, क्या नाम दे? जो आपको छोड़ जाता है सुबकने के लिए, लड़ने के लिए.
प्यार, ये हमे जीना भी सिखाता है आपके अपनों के लिए. उन्हें खुश देखने के लिए, उन्हें प्यार करने के लिए. मैंने शिद्दती प्यार को महसूस किया है, जो आता है दुबारा तो फिर जाने का नाम नहीं लेता. नश्तर की तरह चुभ जाता है आपके अन्दर. तीस्त्ता रहता है पल-पल हर क्षण. कष्ट देता है और ख़ुशी भी. सोचने पर महसूस होता है की प्यार कितना खुबसूरत होता है. तो कभी लगता है प्यार कितना कष्टदायक होता है. पर प्यार तो वही है तो जो आपको हिम्मत दे, जूनून दे. कुछ पाने का जूनून, किसी को चाहने का जूनून. और वो प्यार ही किस काम का जो आपमें जूनून न पैदा करे. जो आपको लड़ने पर उतारू न कर दे, अपनी किस्मत से, अपनी परिस्थितियों से. प्यार तो उस रस्ते की तरह है जिस पर आप चलते हैं तो उस छोटे गड्ढे को नहीं याद रखते जो रस्ते में आता है. बल्कि पुरे रास्ते को याद करते हैं और खुश होते हैं की ये रास्ता बहुत प्यारा है, आखिर आपकी जिंदगी का प्यार जो साथ है.

शुक्रवार, जून 11, 2010

घाव मेरे भी हैं


तुम वो नहीं जिसे मैंने चाहा था
तुम वो नहीं जिसे मैंने पूजा था
मैं तो कभी निकल ही नहीं पायी
उन लम्हों से
उन बातों से
अन्दर तक कही गहरे
घाव मेरे भी हैं
नहीं दिखाया तुम्हे
उम्मीद थी के घाव भर जायेंगे
अब जब उम्मीद की
तुमने मेरे घाव हरे कर दिए
तोड़ डाला मुझे
एक बार फिर
दुबारा
और कहते हो
हिम्मत नहीं है
अरे तुम सच में हो कायर
तुम्हारे अपने तुम्हारे नहीं
वो जब कल होंगे व्यस्त
तब तुम क्या करोगे
उनके बच्चो की नेप्पी साफ़ करोगे
कहते फिरोगे मैंने तो कईयों को जिलाया है
अपना घर होम कर

शुक्रवार, जून 04, 2010

मैं ही हू...



























ज़ी हा...
फिर से मैं ही हू...
आती जाती...
गुनगुनाती...
इठलाती...
रोती गाती हंसती और हंसाती...
वो दिन जो थे मेरे...
जो थे हमारे...
कही हैं अब भी
मेरे अन्दर दहकते...
दह्काते मचलते...

सोमवार, मई 24, 2010

मेरी हिता....


मेरी सहेली गीता ने ये कविता बड़े प्यार से लिखी है...



कूदती फांदती,

नाक बहती

दांत खुजाती

कब गोद में आओगी...........

गुन गुने हाथों से

मेरे दूध को बोलो कब तुम सह्लओगी.......

पैर कब लगेंगे,

कब हाथ होंगे बड़े,

और तब तुम आकर

मेरे आँचल में छिप जाना

हम तुम मिलकर

तब लुका छिपी खेलेंगे.....

लव, धोखा और धोखेबाज


लिव-इन रिलेशन को लेकर कोर्ट ने छूट दे दी है। उन थकाऊ और उबाऊ लोगों के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया है, जो इसके खिलाफ बोलते रहे हैं। निश्चित तौर पर कोर्ट का यह फैसला पुरातनपंथी सोच वालों के गले नहीं उतर रहा। लिव-इन का पुरजोर समर्थन करने वाले खुश हैं लेकिन इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि चाहे लिव-इन हो या कोई अन्य रिश्ता, तमाम रिश्तों में धोखा देना आम बात हो गई है। अभी एक सप्ताह पहले ही खबर आई थी कि किस तरह ग्रेटर नोएडा में लिव-इन में रह रहे लड़के ने लड़की को धोखा दे दिया। मामला पुलिस थाने तक जा पहुंचा। यह कोई नई बात नहीं है। पहले भी रिश्ते में धोखा हुआ करते थे। अब भी होते हैं। बस अंतर यह है कि अब सामने आने लगे हैं। लोगों में हिम्मत बढ़ गई है।

लिव-इन का जोर इधर कुछ ज्यादा ही बढ़ा है। दिल्ली में रहने वाली रोमा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे एक दिन प्रशांत का साथ छोड़ने को मजबूर होना पड़ेगा। रोमा ने प्रशांत की हरसंभव देखभाल की। उसकी नौकरी न रहने पर उसका फोन बिल जमा कराने से लेकर उसके तनाव को झेला भी लेकिन रोमा को अंतत: कुछ हासिल नहीं हुआ। एक दिन प्रशांत ने कह दिया कि अब वह उसके साथ रिश्ता नहीं रखना चाहता। उसने कभी भी रोमा को चाहा ही नहीं। रोमा के पास सिवाए रोने के कोई और चारा ही नहीं था। लाख पूछने पर प्रशांत ने केवल यह बताया कि वह उसके टाइप की नहीं है। यह केवल रोमा और प्रशांत की कहानी नहीं है। धोखाधड़ी केवल लिव-इन या वैवाहिक रिश्ते में ही नहीं होती। भाई-बहन, दोस्त, मां-बच्चे के रिश्ते में भी धोखाधड़ी की पूरी आशंका रहती है। धोखा केवल स्त्री ही नहीं, पुरुषों को भी मिलता है। और धोखा केवल पुरुष ही नहीं, स्त्री भी देती है। बस अंतर यह होता है कि लड़कियां बेहद इमोशनल होती हैं, वे दिल से ज्यादा और दिमाग से कम सोचती हैं। उन पर समाज का इतना अधिक दबाव होता है कि इस बारे में सोचकर भी कुछ कर नहीं पातीं। दिमाग में कुछ आया नहीं कि उन विचारों को झटकने में लग जाती हैं।

तमाम आंकड़े और शोध भी बताते हैं कि लड़कियां दिमाग से कम और दिल से ज्यादा सोचती हैं। औसत तौर पर देखा जाए तो करीब 87 फीसद महिलाएं स्वीकारती हैं कि वे चाहकर भी अपने रिश्ते को छोड़ नहीं पातीं। धोखाधड़ी और चोरी के मामले में चाहे धोखा स्त्री ने दिया हो या पुरुष ने, धोखे का खामियाजा केवल स्त्री को ही उठाना पड़ता है। वह न केवल इमोशनल तौर पर टूटती-बिखरती है, बल्कि सामाजिक दायरे में भी उसे ही सब बर्दाश्त करना पड़ता है। यदि पुरुष ने उसे धोखा दिया है तो उसके सामने पहचान का संकट खड़ा हो जाता है। उसे महसूस होता है कि वह जहां भी जाएगी, सब उससे उस पुरुष के बारे में पूछेंगे, जिसने उसे छोड़ दिया है। यदि उसने धोखा दिया है तो भी उसी से ऐसे सवाल किए जाएंगे। उससे पूछा जाएगा कि आखिर उस पुरुष में क्या कमी थी जो उसने उसे छोड़ने की हिम्मत दिखाई। दोनों स्थितियों में लोग-समाज उसे ही दोष देंगे। तरह-तरह की उपाधियों से नवाजेंगे।
हाँ , यह जरूर है कि इन दिनों युवाओं के विचार में धोखा देने, लेने और महसूस करने के मायने जरूर बदल गए हैं। नई जेनरेशन के लिए धोखा करने का मतलब कोई बड़ा तूफान नहीं होता। जहां भी आप अपने को, अपनी भावनाओं को ठगा हुआ पाते हैं, वहीं आहट महसूस करते हैं। आप जिसके साथ रूम मेट के तौर पर रहते हैं, वहां भी धोखा चुभता है। फिर रिश्ते तो मन से जुड़े होते हैं। गहरे संबंध हों चाहे मामूली सा सहकर्मी, जब जुड़ाव होने लगता है तो तब ईमानदारी की उम्मीद भी होती है। यकीन जरा सा भी टूटे तो किरच चुभती ही है। कभी तो संभल जाते हैं। कभी घाव गहरे हो जाते हैं। देखा जाए तो धोखाधड़ी स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसकी कोई सटीक परिभाषा नहीं है और न ही खांचा। यह कभी भी किसी के मन में आ सकता है। सही तरह से समझने की कोशिश की जाए तो यह काफी हद तक व्यक्ति के स्वभाव पर निर्भर करता है। कई बार तो रिश्ते में स्पेस न मिलने की वजह से भी मन भागने लगता है। हर समय सवालों का जो फंदा सामने रहता है, उससे मन ऊब की ओर बढ़ता है। कई बार तो सामने वाले की अपेक्षाओं पर आप लगातार नहीं उतर पाते हैं तो भी रिश्ता टूटन की ओर बढ़ने लगता है। इसलिए बेहतर तो यह है कि आप अपने रिश्ते में रोमांच को बनाए रखें।

अब रश्मि और दीप्ति की दोस्ती को ही लें। दोनों एक-दूसरे के साथ करीब आठ साल से हैं। दोनों पक्के दोस्त हैं, बल्कि परिवार कहना ज्यादा बेहतर होगा। दीप्ति की जिंदगी में किसी का आगमन हुआ। जाहिर सी बात है दोनों का मिलना थोड़ा कम हो गया। रश्मि आठ साल की अपनी दोस्ती को यूं थोड़ा भी अलग होता नहीं देख पाई। वह बार-बार दीप्ति को फोन मिलाती और पूछती रहती कि वह कहां है। स्पेस न मिलने से दीप्ति का नाराज होना स्वाभाविक था। फलत: दीप्ति रश्मि से दूर होने लगी। यह स्पेस किसी भी रिश्ते को बनाए रखने, जोड़े रखने के लिए बेहद जरूरी होता है। रिश्ते में धोखा न हो, इसलिए बातचीत की पूरी आजादी होनी चाहिए। क्योंकि कहते हैं न कि बात करने से ही बात शुरू होती है।

मां का जन्म


मां होने का अहसास सिर्फ ईश्वर के बराबर होने जैसा सुखदायी ही नहीं है,जीवन देने और उसे संवारने की संतुष्टि मां शब्दों में नहीं बांट सकती।समय ने मां की भूमिका में भारी बदलाव भले ही ला दिये हों,आधुनिक मां सुपर मॉम बनने की धुन में अनजाने ही नयी परिभाषाएं गढती जा रही है।वह भावनात्मक रूप से बच्चों के और भी ज्यादा करीब है और उनके फिजिकल डेवलपमेंट के साथ ही मेंटल फिटनेस के लिए भी हर तरह से तैयार है

अनुभा खुश थी। कुछ महीनों पहले। सब उसकी चिंता करते थे। सब उसे अटेंशन देते थे। डॉक्टर से लेकर पति, रिश्तेदार सब उसकी हिमायत करने में लगे रहते थे। यहां तक कि बाजार में अपरिचित भी उसे आराम करने की सलाह देते थे। बस में वह सफर करती तो उसे तुरंत सीट मिल जाती। अनुभा को यह सब अच्छा लगता था। उसके अंदर कोई नया आकार जो ले रहा था। लेकिन यह क्या! उसकी प्यारी-सी बच्ची के जन्म लेने के बाद उसे महसूस होने लगा मानो वह उस दायरे से बाहर आ गई हो। अब उसे सारे काम खुद करने पड़ते। नौकरी पर जाना, लंच तैयार करना। लंच पैक करने से लेकर सास-ससुर के लिए लंच बनाकर जाना। शॉपिंग करना, बिल जमा करना, गैस के लिए नंबर लगाना-लाना, बिल्कुल उसी तरह से जैसे वह पहले किया करती थी। अनुभा को ऐसा लगने लगा मानो जिसके लिए उसे सबसे ज्यादा जिम्मेदार होना चाहिए, वह कोई फैक्टर ही नहीं है।

ऐसा सिर्फ अनुभा के साथ ही नहीं होता, मां बन चुकी अधिकतर महिलाएं ऐसा ही महसूस करती हैं, क्योंकि उनके साथ ऐसा ही होता है। नौकरी पर जाती मां हो या घर में रहने वाली, बच्चे की जिम्मेदारी सौ फीसद उसके पास होती है। दिन भर ऑफिस-घर के काम के बाद जब रात को नींद आती है तो भी बच्चे का रोना उसे जगा डालता है। ऐसे में नई मां को कोफ्त तो होगी ही। लेकिन अफसोस, उसकी इस कोफ्त की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। अब वो बात ही नहीं रही कि आप संयुक्त परिवार में रह रहे हों और आपके बच्चे की देखभाल के लिए कई लोग हों। इस खालीपन को भरने के लिए पिता का रोल जरूरी हो जाता है, जो किया नहीं जाता। औसत मां अपने पार्टनर से प्रति सप्ताह 20 घंटे अधिक काम करती है। भले ही उसे पे-चेक मिल रहा हो या नहीं।

बच्चे की देखभाल करना, उसे संभालना-संवारना निश्चित तौर पर कीमती काम है लेकिन इसके भी इफेक्ट्स हैं। कई बार मांएं बच्चे को संभालते-संभालते टूटने लगती हैं। और यदि उसे जगह बदलनी हो, ऑफिस जाना हो या बच्चा टेंपरामेंटल हो तो उसकी वाट लगने से कोई नहीं रोक पाता। कई अध्ययन बताते हैं कि यदि महिला को एक या दो बच्चे हों, खासकर तब जब उसे सपोर्ट करने के लिए कोई न हो तो थकान, डिप्रेशन,एंजायटी,टाइप 2 डायबिटीज, न्यूट्रिशनल डेफिसिट जैसे फिजिकल और मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम्स होने की आशंका काफी हद तक बढ़ जाती है। सेक्स में अरुचि और लड़ाई-झगड़े भी होने लगते हैं। यानी कि अधिकतर मांएं पैरेंटिंग के शुरुआती दिनों में फिजिकली और साइकोलॉजिकली डिप्लेटेड (शून्य) महसूस करती हैं। इसे डिप्लेटेड मदर सिंड्रोम कहते हैं। मां के लिए यह किसी भी लिहाज से सही नहीं है। यह न तो बच्चे के लिए अच्छा है और न उनके पापा के लिए। सबसे अच्छा तो यह हो कि पापा भी बच्चे के लालन-पालन में समय दें। शोधकर्ताओं ने पाया है कि जो पिता परिवार की रोजाना के काम-काज में जुड़े रहते हैं, बच्चे की मां के साथ जिनका जुड़ाव होता है,उनका मूड अधिकतर समय अच्छा रहता है। वे अपने पार्टनर के साथ अधिक संतुष्टमय जिंदगी बिताते हैं।

सबसे बुरी स्थिति तो मां की होती है। न तो वह अपना ख्याल रख पाती है, न ही ऑफिस में काम पर ध्यान दे पाती है, बल्कि पति से उसकी दूरी तलाक की ओर बढ़ने लगती है।दिक्कत तो यह भी है कि कम ही संस्थानों या अस्पतालों में इस मामले को तवज्जो दी जाती है कि परिवार को बढ़ाने और चलाने की जिम्मेदार मां की मदद कैसे की जाए। इसके साइकोलॉजिकल पहलू पर किसी का ध्यान नहीं जाता। अभी भी मांओं को केवल यही कहा जाता है कि "यह सब केवल तुम्हारे दिमाग में है,इससे मुक्ति पाओ'। दूसरी ओर, मीडिया के बढ़ते प्रपंच ने आम मांओं को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि वे "मॉडल मदर' की तरह नहीं है, जो फुल-टाइम जॉब करती हैं, जिनके क्यूट और वेल-मैनर्ड बच्चे हैं,जिनकी किचन सिंक हमेशा चमकती रहती है। कई स्तरों खासकर पिता, एक्सटेंडेड फैमिली और सरकारी सुविधाएं ना के बराबर मिलती हैं। अधिकतर मांएं बच्चों को अच्छी जिंदगी देने और अपने करियर को अच्छी तरह से चलाने के बीच फंस जाती हैं। टूटने लगती हैं, बिखरने लगती हैं। अंत में जो कम्प्रमाइज वे करती हैं, उसके बाद भी उनमें से कुछ ही खुश रह पाती हैं।

इतने टूटन और बिखराव के बाद भी मांओं को गिल्ट महसूस होता है कि उन्होंने "अपने लिए' क्यों ऐसा किया। क्यों खुद के लिए उन्होंने कुछ लेना चाहा, समय निकाला, दूसरों की मदद ली आदि। हमारी संस्कृति हो या परिवार की स्थिति, या फिर सरकार की पॉलिसी, इसे बदलने में अभी काफी समय है। मुखर होकर बोला जाए तो कई पिता तो अब भी खुद उठकर सूरज की रोशनी तक नहीं देख पाते।मांएं ही उठती हैं, लंबी सांस लेती हैं, उनींदी होती हुई खड़ी भी होती हैं और फिर काम में लग जाती हैं।अफसोस तो यह है कि इनके लिए कोई खड़ा नहीं होता। इनकी परवाह लोग नहीं करते। इन्हें खुशनुमा महसूस हो, इसके लिए कोई कवायद नहीं करता।

बुधवार, मई 05, 2010

नहीं तुम


तुम नहीं थे
मंद बहती बयार में
तेज चलते अंधड़ में
न तो उस आइसक्रीम में
जो तुमने मुझे दी थी खाने
एक बार नहीं कई-कई बार

तुम वहाँ भी नहीं थे
जिसे मैंने सबसे अपना माना
जहां मैं कई-कई बार जाती हूँ
देखती हूँ उस रास्ते पर
जहां तुम मुझे रिदा छोड़ गए थे
उन गलियों में जहां तुमने
पिलाई थी मुझे
अपने वे मीठे बोल
वह हंसी
जो देर तक अब तक
गूंजती रहती है मेरे कानों में

तुम नहीं हो
वहाँ जो मेरा शरीर है
जहां तुम्हारी अनुभूति है
जहां तुमने कभी स्पर्श किया था
तुम्हारी वो हलकी छुवन
मेरे गालों पर अब भी बसी
तुम क्यों नहीं हो वहाँ
जहां मेरी साँसे होकर भी नहीं हैं
मेरे आंसू हैं जहां
मेरे थरथराते होंठ
कापते हाथ पर
जहां अब भी तुम्हारा स्पर्श है






शुक्रवार, अप्रैल 16, 2010

MISS PR--सुपहरहिट


आखिर कभी सोचा है कि पीआर क्षेत्र में महिलाओं का बोलबाला क्यों है?आखिर क्यों हर पीआर एजेंसी में शीर्ष से लेकर ट्रेनी तक लड़कियों ने ही मोर्चा थाम रखा है? आखिर क्यों हर सफल व्यक्ति या कंपनी के पीछे किसी पीआर महिला का ही हाथ होता है।

कंट्रोल करने की शक्ति, स्वभाव में गर्माहट, कम्यूनिकेशन स्किल, तमीज, मेहनती

ऐसे गुणों की फेहरिस्त तैयार की जाए तो पुरुष ही पीछे हैं। इन सारे गुणों की वजह से ही महिलाएं बाजी मार रही हैं। पारिवारिक व्यवस्था में भी विश्वास और मल्टीटाÏस्कग के गुण ही महिला को शीर्ष पर आसीन करते हैं। ये सारे गुण ही अब प्रोफेशनल माहौल में भी महिलाओं के रास्ते तय करने का कारण बनते जा रहे हैं। नये समझ में हर तरह की कंपनी में दो चीजों का बोलबाला होता है। पदृहला, पब्लिक रिलेशन और दूसरा ह्रूमन रिसोर्स। कंपनियों की चाहत होती है कि वे जो भी काम करें, उसका प्रचार-प्रसार बेहतरीन तरीके से हो। वे न केवल आर्थिक तौर पर विकास करें बल्कि उन्हें लोकप्रियता भी जमकर मिले। कंपनी की प्रोफाइल के हिसाब से यह काफी महत्व रखता है। विशेषकर प्रोडक्शन से जुड़ी कंपनियों के लिए तो यह बेहद जरूरी है।

यह काफी पुराना जुमला हो चुका है कि लोकप्रियता किसी की मोहताज नहीं। अब जमाना खुद को प्रमोट करने का है। जिसने खुद को प्रमोट नहीं किया, वह पीछे हो जाता है। यहीं रोल बनता है पब्लिक रिलेशन प्रोफेशनल यानी पीआर का। महिलाओं के गुण उन्हें बेहतरीन पीआर बनाने का माद्दा रखते हैं। फिर चाहे किसी कंपनी को लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचना हो या किसी कलाकार को नंबर एक की कुर्सी पानी हो। पीआर यदि महिला हो तो उसे लोगों के दिल में बसने से कोई रोक नहीं सकता। कई फिल्म और टीवी कलाकारों की पीआर मोनिका भट्टाचार्य का नाम इस लिहाज से उल्लेखनीय है। मोनिका को इस क्षेत्र में आने की प्रेरणा अपनी मां से मिली। मोनिका कहती हैं, "महिलाओं का आईक्यू अच्छा होता है। उनमें एक साथ कई काम करने का माद्दा होता है। हां, यह बात जरूर दीगर है कि बतौर महिला मुझे कई चैलेंज का सामना भी करना पड़ता है।' मोनिका की बात से इत्तिफाक रखती हुई मीडिया स्ट्रेटेजिस्ट दीपिका सिंह कहती हैं, "इस क्षेत्र में काम करने का सबसे बड़ा चैलेंज यात्रा करना है। घर के साथ ऑफिस को तो फिर भी संभाला जा सकता है। लेकिन बार-बार शहर से बाहर जाने में कई बार दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। कई बार छोटे शहरों का दौरा भी करने की जरूरत पड़ती है।' इतनी दिक्कतों के बावजूद भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि कड़ी मेहनत करने का जज्बा और दूसरों के साथ जल्दी घुल-मिल की प्रवृत्ति महिलाओं को पीआर क्षेत्र में दिनोंदिन आगे बढ़ा रही है।

यूं तो अब तक इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी पर कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया है। लेकिन अपने आस-पास नजर डालें तो हम पाएंगे कि पीआर एजेंसी या पीआर विभाग में काम करने वालों में करीब 80 फीसद संख्या महिलाओं की हैं। फिल्मों की बड़ी पीआर एजेंसी के एक मालिक अपना नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि इतनी अधिक संख्या में महिलाओं के पीआर में होने का ही मतलब है कि उनमें गजब की काबिलियत है। ये लड़कियों के काम करने के स्टाइल की न केवल तारीफों के पुल बांधते है, बल्कि उन्हें मेहनती होने के तमगे से भी नवाजते हैं। सामने वाला व्यक्ति कितना भी व्यस्त क्यों न हो, लड़कियों से आसानी से फोन पर बातें कर लेता है। इन महाशय की बात सौ फीसद सच है। अब इसे पॉजिटिव सेंस में लें या किसी और सेंस में, लड़कियों से बातें करते समय कम ही लोग गुस्से में आते हैं। उनसे बदतमीजी नहीं करते और न ही उन्हें परेशान करते हैं। पुरुषों की इस मानसिकता के पीछे का कारण पीआर पंडित एजेंसी की पीआर प्रोफेशनल पारूल सूरी बखूबी समझाती हैं, "दरअसल लड़कियों में ही इतनी तमीज होती है कि सामने वाला नाराज हो ही नहीं सकता। न तो लड़कियां गुस्सा होती हैं और न ही सामने वाले को गुससा होने का मौका देती हैं। वे जो भी काम करती हैं, बेहद सोच-समझकर करती हैं। काम के प्रति उनमें समर्पण भाव तो होता ही है।' इतनी सारी खूबियां वाकई किसी महिला में ही हो सकती हैं। वरना पुरुष न केवल भावुक होते हैं, बल्कि उनमें क्रिएटिविटी की भी सीमा होती है।

फर्श से अर्श तक पहुंचने का सपना तो हर किसी में होता है लेकिन उस सपने को हकीकत में बदलना हर किसी के बस का नहीं। पीआर की सारी क्वालिटी किसी में हो और सपने को हकीकत में बदलने का जज्बा भी तो उसे क्या कहेंगे। दस सालों में अपनी पीआर कंपनी इंपैक्ट पब्लिक रिलेशंस खड़ी करने वाली कुलप्रीत कौर के हौसले आज भी उतने ही बुलंद हैं। कुलप्रीत किसी पीआर कंपनी में एडमिनिस्ट्रेशन विभाग में थी। लेकिन वहां पीआर के काम करने लगीं। महसूस हुआ कि खुद ही कंपनी शुरू की जाए। बकौल कुलप्रीत, "अलग-अलग हिस्से में खुद को ढालने की क्षमता, कंट्रोल करने की शक्ति, धैर्य, बातें करने की क्षमता, स्वभाव में गर्माहट, मिलनसार, कम्यूनिकेशन स्किल जैसी खूबियों ने मेरा खूब साथ दिया।' खास तो यह है कि दूसरों की कंपनी और दूसरों को प्रमोट करने में कभी भी इन्हें नहीं महसूस हुआ कि ये खुद को प्रमोट करें। फिर चाहे मोनिका हों, दीपिका, पारूल या कुलप्रीत, दूसरों की सफलता के पीछे खही अपने अस्तित्व को नकारती नहीं। बल्कि दूसरों की सफलता पर इन्हें फक्र होता है। आखिर उनकी सफलता इनकी देन ही तो है।

सोमवार, अप्रैल 05, 2010

लहरें


कई बार मन में ख्याल उपजते हैं और फिर गुम भी हो जाते हैं। सोचती हूं कई बार और कई बार जूझती हूं। आखिर ये ख्याल आते ही क्यों हैं? और क्यों आकर मुझे विचलित कर जाते हैं। जीवन की सचाइयों से मैंने काफी कुछ सीखा है, वो भी काफी कम उम्र में। जिस उम्र में लड़कियां खिलखिलाती हैं, बचपने में रहती हैं, उस उम्र में मैंने अपनी खिलखिलाहट खो दी। एसा नहीं है कि मैंने अपनी खिलखिलाहट को बचाने की कोशिश नहीं की। एसा भी नहीं है कि मैं उलझती चली गई। उलझी जरूर लेकिन उससे निकलने का रास्ता भी मैंने ही ढूंढा। रात-रात भर खुद से सवाल पूछती रही कि मैं ही क्यों? जवाब मिले कई बार और कई दफा नहीं भी मिले। मिला तो दूर तक दिखता रास्ता, जिस पर मुझे कोई नहीं दिख रहा था।

मुझे हमेशा से एडवेंचर पसंद रहा है। दूर घुमावदार पहाड़ों तक निकल जाना या फिर आसमान को छूती पहाड़ियों तक पहुंचना। उससे भी ज्यादा पसंद रहा है समुद्र में खो जाना। समुद्र की गहराइयां मुझे खींचती हैं अपनी आ॓र। लगता है मानो मेरा कुछ हो वहां। जाना चाहती थी वहां, छूकर महसूस करना चाहती थी। आखिर कुछ तो है मेरा वहां। गई भी, मिला भी। पर रहा नहीं मेरे पास। मुझे छूकर निकल गया, बिल्कुल उसी तरह जैसे पानी हाथ को छूकर निकल जाता है। जैसे समुद्र किनारे पर आकर फिर लौट जाता है। किनारे पर चाहे जो भी लिख लो, आती लहरें उसे लेकर लौट ही जाती हैं।

लहरें, इनसे मेरा नाता पुराना रहा है। खूबसूरत लहरें, संगीतमय लहरें, उलझी सी सुलझी लहरें। कुछ दिन पहले ही पुरी जाना हुआ। लहरों से साक्षात्कार हुआ। लगा मानो मेरी पुरानी जान-पहचान हो। छूकर देखना चाहा, उसे अपनी गोद में समा लेना चाहा। पर लहरें कहां थमने वाली। हथेली में आईं, उंगलियों के पोरों से होते हुए मुझे छोड़कर निकल पड़ीं। मुझे रिदा कर गईं। पर मैं हार मानने वालों में नहीं हूं। मैं अकेले रास्ते पर चलने वालों में नहीं हूं। मुझमें इतनी कूवत है कि मैं निकल सकूं इसी रास्ते पर बिना झिझके, बिना ठहरे।

शनिवार, अप्रैल 03, 2010

जायका बदल कर देखें


मेरी सहेली गीता ने ये कविता लिखी, जो मुझे बेहद पसंद आई.
पढ़ते के साथ मन में आया क्यों न इसे अपने ब्लॉग पर प्रेषित कर दूँ।


ये स्क्रिप्टेड,
हमारी तुम्हारी ज़िन्दगी
फाईव स्टार होटल सी
आज थोडा मेनू बदल कर देखें
अचार के साथ भर कर भात हो
पीली वाली दाल, अरहर की
एक के उपर एक चढ़ी दीवारों से निकल कर
थोडा जायका बदल कर देखें
बिल्डिंग में हमारी बहस टकराकर तितली होती
काओं काओं के अभ्यास से दूर
मेरे तुम्हारे में चाय सुडकने कि सनक तो रह जाये
वो भी कहीं टिप टिप के शोर में न दब जाये
टिक टिक पर चलने वाले हो गए
हम सब और सभी तो ऐसे होते जा रहे हैं
नमक मिर्च कम ज़यादा कर लेने में आपका मेरा क्या जाता है
एक बार आजमा लेते हैं

शुक्रवार, मार्च 05, 2010

मैं स्वेच्छाचारी


तसलीमा नसरीन


बारिश और वज्रपात! इन्हीं सब में पिछले दिनों घर से निकल पड़ी। क्यों? बारिश में भीगने। क्यों? भीगोगी क्यों? इच्छा हो रही है!

इच्छा? जी, इच्छा!

लोग क्या सोचेंगे?क्यों सोचेंगे?

सोचेंगे, दिमाग खराब हो गया है! सोचने दो!बारिश में भीगोगी तो बीमार पड़ जाआ॓गी। कैसी बीमारी?सर्दी-बुखार! होने दो! इस उम्र में शोभा नहीं देता! किस उम्र में शोभा देता है?सोलह-सत्रह की उम्र होती, तो ठीक था। बहुतेरे लोगों की नजरों में यह भी ठीक नहीं। किस उम्र में क्या करना ठीक है, क्या गलत, किसने बनाई है यह लिस्ट? समाज ने!

समाज के लिए हम हैं या हमारे लिए समाज? नियम-कानून आखिर इंसान ही बनाता है न! इंसान ही उन्हें तोड़ता भी है। कोई भी नियम ज्यादा दिनों तक नहीं रहता।

हमारा संवाद इसके बाद और भी आगे बढ़ते हुए अंत में ‘स्वेच्छाचार’ पर आ थमा। ‘सवेच्छाचार’ शब्द का अर्थ, अगर ‘अपनी मन-मर्जी से काम करना’ हो (संसद बांग्ला शब्दकोश) तो मैं जरूर स्वेच्छाचारी हूं। शत-प्रतिशत! आखिर यह मेरी जिंदगी है। अपनी जिंदगी में, मैं क्या करूंगी, क्या नहीं करूंगी, यह फैसला मैं लूंगी। कोई दूसरा कौन लेगा? जिंदगी जिसकी है, बस उसी की है। अपनी जिंदगी में कौन, क्या करना चाहता है, इंसान को यह खुद जानना चाहिए। जिस इंसान में अभी तक कोई निजी इच्छा नहीं जागी, उसे मैं वयस्क इंसान नहीं कहूंगी। जो अभी तक अपनी मर्जी-मुताबिक नहीं चलता या चलने से डरता है, उसे मैं स्वस्थ दिमाग वाला इंसान नहीं मानती। अब सवाल यह उठता है कि अगर किसी के मन में किसी का खून करने की इच्छा सिर उठाए, तब अगर किसी के मन में बलात्कार करने की चाह जाग उठे तब? मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि जो स्वेच्छाचार दूसरों का नुकसान करे, उस स्वेच्छाचार में मेरा विश्वास नहीं है। वैसे अब इस नुकसान में भी फेर-बदल हो सकता है। अगर कोई यह कहे, ‘तुम धर्म की निंदा नहीं कर सकती क्योंकि तुम्हारी निंदा मेरी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाती है’, तब? किसी के शरीर पर आघात करने का मतलब अगर दूसरों को नुकसान पहुंचाना होता है तो मन पर आघात करने का मतलब दूसरों को नुकसान पहुंचाना क्यों नहीं होगा? इस मामले में मेरी राय है कि जिस इंसान के मन में अनेक तरह के कुसंस्कार और अज्ञान घर कर गये हैं, उन्हें दूर करना होगा। सजग-सचेतन इंसान की जिम्मेदारी है कि वह ये सब दूर करें। सवाल यह उठाया जा सकता है कि मैं अपने को सचेतन क्यों मान रही हूं और कट्टरवादी इंसान को सचेतन क्यों नहीं मानती? इसके पक्ष में मेरे पास सैकड़ों तर्क हैं। वैसे कट्टरवादी भी अपने-अपने तर्क पेश कर सकते हैं लेकिन मेरी जो विचार बुद्धि है, मैंने जो मूल्यबोध गढ़े हैं। उसके आधार पर मैं कट्टरपंथियों के तर्क को नितांत अवैज्ञानिक और बेतुका कह कर उनका खंडन करती हूं और अपनी राय पर स्थिर रह सकती हूं। जहां तक मेरा ख्याल है, मैं किसी के शरीर पर आघात नहीं करती, किसी भी सच्चे, ईमानदार इंसान के आर्थिक नुकसान की वजह नहीं बनती। अपनी स्वेच्छाचारिता को लेकर भी मुझे कभी, कोई पछतावा नहीं हुआ। आज तक कभी पछताना भी नहीं पड़ा समाज के अनगिनत ‘टैबू’ यानी रूढ़ियां मैंने तोड़ी हैं। लोगों ने इसे स्वेच्छाचार कहा, मैंने इसे अपनी आजादी माना। मैं अपने विवेक की नजर में बिल्कुल साफ और स्पष्ट हूं। मैं जो भी करती हूं, मेरी नजर में वह अन्याय या भूल नहीं है। अपनी नजर में ईमानदार और निरपराध बने रहने की कद्र बहुत ज्यादा है।

जब मैं किशोरी थी, कदम-कदम पर निषेधाज्ञा जारी थी। घर से बाहर मत जाना। खेलना-कूदना नहीं। सिनेमा-थियेटर मत जाता। छत पर मत जाना। पेड़ पर मत चढ़ना। किसी लड़के-छोकरे की तरफ आंख उठा कर मत देखना। किसी से प्रेम मत करना-लेकिन मैंने सब किया। मैंने किया, क्योंकि मेरा करने का मन हुआ। चूंकि मुझे मनाही थी इसलिए करने का मन हुआ, ऐसी बात नहीं थी। अब्बू तो मुझे और बहुत कुछ भी करने को मना करते थे। मसलन, पोखर में मत उतरना। मैं पोखर में नहीं उतरी क्योंकि मुझे तैरना नहीं आता था। इस वजह से मुझे आशंका होती थी कि तैराकी सीखे बिना, अगर मैं पोखर में उतरी, तो मजा तो मिट्टी होगा ही। असावधानीवश मैं डूब भी सकती हूं। अब्बू की कड़ी हिदायत थी-छत की रेलिंग पर मत चढ़ना। मैं नहीं चढ़ी क्योंकि मुझे लगता था कि रेलिंग संकरी है, अगर कहीं फिसल कर नीचे जा पड़ी तो सर्वनाश। कोई भी काम करते हुए लोगों ने क्या कहा-क्या नहीं कहा, मैंने यह कभी नहीं देखा। मैंने यह देखा कि मैंने खुद को क्या तर्क दिये। अपनी चाह या इच्छा के सामने मैं पूरी ईमानदारी से खड़ी होती हूं। औरतों के लिए जिनकी इच्छा का मोल यह पुरूषतान्त्रिक समाज कभी नहीं देता। अपनी इच्छा को प्रतििष्ठत करना आसान नहीं है। लेकिन मुझे इन्हें प्रतििष्ठत न करने की कोई वजह नजर नहीं आती। अपना भयभीत, पराजित, नतमस्तक, हाथ जोड़े हुए यह रूप मेरी ही नजर को बर्दाश्त नहीं होगा, मैं जानती हूं। मेरी सारी लड़ाई सच के लिए है। मेरी जंग समानता और सुंदरता के लिए है। यह जंग करने के लिए मुझे स्वेच्छाचारी होना ही होगा। इसके बिना यह जंग नहीं की जा सकती। व्यक्तिगत जीवन में भी सिर ऊंचा करके खड़े होने के लिए स्वेच्छाचारी बनना ही होगा। अगर मैं दूसरों की इच्छा पर चलूं, तब तो मैं पर-निर्भर कहलाऊंगी। अगर मैं दूसरों की बुद्धि और विचार के मुताबिक चली तो मैं निश्चित तौर पर मानसिक रूप से पंगु हूं। अगर मुझे दूसरों की करूणा पर जिंदगी गुजारनी पडे़ तो मैं कुछ और भले होऊं, आत्मनिर्भर तो हरगिज नहीं हूं। जहां स्वेच्छाचार का आनन्द न हो, मुक्त चिंतन न हो, मुक्त बुद्धि न हो, तब तो मैं मशीनी यंत्र बन जाऊंगी। इस ख्याल से तो मेरी सांस घुटने लगती है। ऐसे दु:सह जीवन से तो मौत ही भली। मर्द बिरादरी तो चिरकाल से ही स्वेच्छाचार करती आ रही है। यह समूचा समाज ही उन लोगों के अधीन है। औरत के लिए स्वेच्छाचार जरूरी है। इच्छाओं की कोठरी में अगर ताला जड़ देना पड़े, ताला जड़कर इस समाज में तथाकथित भली लड़की, लक्ष्मी लड़की, जहीन लड़की, शरीफ औरत, नम्र औरत का रूप धारण करना पड़े-तो अब जरूरी हो आया है कि औरत अपने आंचल में बंधी हुई चाबी खोले। ताला खोलकर अपनी तमाम इच्छाएं पंछी की तरह समूचे आसमान में उड़ा दे। हर आ॓र सर्वत्र औरत स्वेच्छाचारी बन जाए वरना आजादी का मतलब उन लोगों की समझ में नहीं आएगा, वरना वे लोग जिंदगी की खूबसूरती के दर्शन नहीं कर पाएंगी।

आजादी का क्या अर्थ है, मैं जानती हूं। अजादी की जरूरत, मैं पल-पल महसूस करती हूं। भले मैं अकेली रहूं या दुकेली रहूं या हजारों लोगों की भीड़ में रहूं, मैं अपनी आजादी किसी को दान नहीं करती या कहीं खो नहीं देती। हां, मैं आजादी और अधिकार के बारे में लिखती हूं और जो लिखती हूं, उस पर विश्वास भी करती हूं। जो विश्वास करती हूं, वही जीती हूं। मानसिक तौर पर मैं सबल हूं, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हूं और नैतिक रूप से आजाद इंसान हूं। मर्दों को यही बर्दाश्त नहीं होता। मर्द औरत में इतनी क्षमता पसंद नहीं करते। ये लोग औरत को अपने हाथों में ले कर या पैरों तले कुचल-पीस डालना चाहते हैं। जो पिस जाने से इनकार करती हैं वे बुरी हैं, वे भली औरत नहीं है। वे स्वेच्छाचारी हैं।

बहुतेरे लोगों की यह धारणा है कि स्वेच्छाचारी होने का मतलब है, किसी भी मर्द के साथ जब-तब सो जाना, सेक्स संबंध करना। लेकिन स्वेच्छाचार का यह अर्थ हरगिज नहीं है। बल्कि मर्दों के साथ न सोने को मैं स्वेच्छाचार मानती हूं। आम तौर पर नियम यही है कि औरत, मर्द के साथ सोए, मर्द की एक पुकार पर औरत चाहे जहां भी हो, उसके पास दौड़ कर चली आए। लेकिन सच तो यह है कि वही औरत स्वेच्छाचारी है जो इच्छा न हो, तो मर्द के साथ न सोए या सोने से इनकार कर दे! ऐसी स्वेच्छाचारी औरत को मर्द आखिर क्यों पसंद करने लगे? बहरहाल मर्द के सुख-भोग के लिए मर्द के तन-मन की तृप्ति के लिए मर्द की विकृति, ऐश-विलास मिटाने के लिए जो औरत अपने को लुटा न दे, मर्द उसे सिर्फ स्वेच्छाचारी ही नहीं, वेश्या तक कह कर उसका अपमान करने के लिए तैयार रहता है।

मेरा जो मन करता है, मैं वही करती हूं। हां, किसी का ध्वंस करके कुछ नहीं करती। चूंकि मैं स्वेच्छाचारी हूं, इसलिए जीवन का अर्थ और मूल्य, दोनों ही भली प्रकार समझ सकती हूं। अगर मैं स्वेच्छाचारी न होती, दूसरों की इच्छा-वेदी पर बलि हो गई होती, तो मुझ में यह समझने की ताकत कभी नहीं आती कि मैं कौन हूं, मैं क्यों हूं? इंसान अगर अपने को ही न पहचान पाए तो वह किसको पहचानेगा? आज अगर मैं स्वेच्छाचारी नहीं होती, तो शायद यह लेख, जो मैं लिख रही हूं उसका एक भी वाक्य नहीं लिख पाती।

ज़रूरी है उबरना


गिरिजा व्यास, अध्यक्ष, राष्ट्रीय महिला आयोग


महिलाओं के उत्थान की लगातार बातें होती रहती हैं। कागजों से लेकर चैनल्स पर इसकी बहस चलती है लेकिन होता वही है ढाक के तीन पात। दरअसल महिला होना ही अपने आपमें सबसे बड़ी दिक्कत है। सदियों बाद भी महिलाओं को दोयम दर्जा ही प्राप्त है। चाहे घर हो, परिवार हो, भारत हो या यूरोप, अमेरिका, महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। सीमोन द बुआ ने इसलिए कहा था कि महिलाएं चाहे जहां भी रहें, उन्हें पता नहीं होती कि उनकी सुबह कहां होगी। सीता से लेकर द्रौपदी तक, सभी अनिश्चय के दरवाजे पर खड़ी रहती हैं। अप स्थिति में थोड़ा अंतर तो आया है, लेकिन सामाजिक, पारिवारिक,आर्थिक स्वतंत्रता होने के बावजूद पुरानी बेड़ियां अब तक उनके पांवों में जकड़ी हुई हैं। इससे उबरना जरूरी है।


दरअसल इन सारी परेशानियों के बीज कहीं न कहीं महिलाओं के अंतर्मन में गहरे छिपे हैं। वह खुद स्वीकार नहीं कर पाती कि उसे इन रुढ़ियों से उबरना होगा। जरूरत यह है कि महिला खुद अपनी मानसिकता को परिवर्तित करे। वह खुद सारी परिस्थितियों को झेलने के लिए मजबूर हैं। उसे यह समझने की आवश्यकता है कि दूसरों की जिम्मेदारी के साथ वह खुद का दायित्व भी समझे। खुद के अस्तित्व को सिद्ध करने के प्रयास में वह लगातार झेलने को मजबूर है। समाज भी कम नहीं। वह लगातार उसी पर लांछन लगाता है। उसी को "विक्टिम माना जाता है। इसलिए हमने "सेव द फैमिली' कैम्पेन चलाया है। घरेलू हिंसा का एक्ट बनाया है। इसमें लगातार सुधार किए जा रहे हैं। फिर भी नये साल के इन दो महीनों में कई मामले हमारी जानकारी में आए हैं। घरेलू हिंसा और वैवाहिक विवाद के कुल मामले जनवरी माह में 194 और फरवरी माह में 104 सामने आए हैं। मुझे अफसोस है कि सरकार द्वारा उठाए जा रहे इन कदमों के बावजूद हमारे यहां घरेलू हिंसा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। हां, यह जरूर है कि जनवरी में एक भी नहीं और फरवरी में केवल एक ही दहेज का मामला सामने आया है। दिक्कत तो पूरे पारिवारिक और सामाजिक ढांचे में ही है। यदि यह सब कुछ स्त्रियों के साथ पुरुषों को भी समझ आ जाए तो फिर कोई परेशानी ही क्या!


पारिवारिक संस्था हमेशा बनी रहे, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी कई प्रयास किए हैं। सुप्रीम कोर्ट चाहता है कि माध्यम के जरिए पति-पत्नी की काउंसलिंग की जाए और उनके बीच के विवाद को समाप्त करने के प्रयास हों। इन दिनों जो एकल परिवार हैं, उन्हें ध्यान में रखकर ही सुप्रीम कोर्ट ने यह कदम उठाया है। पहले तो संयुक्त परिवार की धारणा थी, वहां परिवार के बीच ही काउंसलिंग हो जाया करती थी। घर बसे और स्त्री आराम से जीवन व्यापन करे, इसी की ख्वाहिश है। रियलिटी शोज में महिलाओं के अश्लील प्रदर्शन को लेकर भी हमने लगातार आवाज उठाया है। "इनडिसेंट प्रेजेंटेशन इन मीडिया' कानून भी इससे लगातार इनकार करता है। इस पर तो रोक लगना ही चाहिए। पर जरूरी तो स्व नियंत्रण भी है। चैलों के साथ इन शोज को बनाने वाले निर्माताओं को चाहिए कि वे इसे रोकने हेतु कदम उठाएं। लड़कियों में भी यह समझ हो कि वे खुद को वस्तु न समझें।


राजनीति में महिलाएं आगे आ सकें, इसके लिए संसद में तो उन्हें आरक्षण मिल रहा है। अब जरूरत है शिक्षा और नौकरी में उनहें आरक्षण मिले। हालांकि कई राज्य शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियों को आरक्षण दे रहे हैं लेकिन पूरे देश में अब तक यह लागू नहीं हुआ है। यदि लड़कियां अपने पैरों पर खड़ी हों, सक्षम हों तो फिर उनके जीवन में कष्ट वाले दर्दनाक पल कम ही आएंगे। मेरे जीवन में कई ऐसे दर्दनाक मामले आए हैं, जिन्हें देख-सुन और जानकर मेरी रूह कांप गई है। पहला, दोनों बांहें कटी औरत को पशु की तरह खाना दिया जाता था। उसके साथ यूं अत्याचार किया जाता था मानो वह पशु हो। दूसरा, सात साल की मानसिक विकलांग बच्ची के साथ कई बार रेप किया गया। तीसरा, रात के दो बजे कड़कड़ाती ठंड और गिरती बर्फ में अमेरिका में एक महिला को घर से बाहर निकाल दिया गया। ये सारे मामले दुहराए न जाएं, इसके लिए पांच बातों को ध्यान में रखने की जरूरत है-

1। कड़ा कानून

2। कानून पालन करने वाले यानी पुलिस का संवेदनशील होना

3। जागरुकता, जो नहीं है

4। नागरिक समाज की भूमिका

5। मीडिया की भूमिका

अभी हमारी बोतल आधी भरी है। जिस देश में राष्ट्रपति महिला हों, लोकसभा स्पीकर महिला हों, विपक्ष नेता महिला हो, उस देश में अब समय आ गया है कि स्त्री अपनी खोल से बाहर निकले।


बुधवार, फ़रवरी 10, 2010

इस पौरूषपूर्ण समय में


एक रूसी मान्यता के मुताबिक किसी सुल्तान के राजकाज के बारे में उसके राजकीय फैसलों और नीतियों से ज्यादा उसके हरम में झांककर पता लगाया जा सकता है। हाल के एक सर्वे में ए क बार फिर यह क्रूर सचाई रेखांकित हुई है कि महिलाए देहरी से बाहर से ज्यादा उसके अंदर प्रताड़ित और शोषित हैं। सर्वे में बताया गया है कि 44 फीसद पत्नियां यौन संबंधों में पति के पाशविक आग्रहों को मानने या यों कहें कि भुगतने को मोहताज हैं। दिलचस्प है कि यह उसी दौर की सचाई है जिसमें मानवाधिकार और स्त्री अधिकारों को लेकर सबसे ज्यादा विमर्श और संघर्ष की बातें की जाती हैं।

भारतीय समाज में औरतों की स्थिति के बारे में मुझे तो यही लगता है कि यहां पूरी जिंदगी महिलाए बस एक के बाद दूसरे खूंटे से बंधती हैं। कवयित्री कात्यायनी के शब्दों की मदद लें तो इस ‘पौरूषपूर्ण समय’ में आधी दुनिया के लिए अगर कुछ बदला है तो वह है उसके लिए सताए या भोगे जाने के ‘सेंस’ और ‘स्पेस’ में बढ़ोतरी। विवाह हमारे समाज की सबसे पुरानी संस्था है। पर बदकिस्मती से शुरू से ही इस संस्था का चरित्र पुरूष ही गढ़ते रहे हैं। सभ्यता और शिक्षा का हासिल भी बस इतना रहा है कि जिस अनुशासन को अब तक स्त्रियां कुलीन संस्कारों के नाम पर मानती रही हैं, आज उसकी रिसती हुई सचाई पर चिंता व विमर्श की गुंजाइश बनी है। बेटियों को पति को स्वामी रूप में देखने की समझ बचपन में ही पोलियो के खुराक की तरह दे दी जाती है। यही नहीं उसके साथ मर्यादा की वह लक्ष्मण रेखा भी वह अपने साथ ही लिए चलती है जिसके तहत पति के आश्रय, उसके घर, उसकी मोहताजी के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं। यह सब सबक हमारे समाज में बेटियों को महज इसलिए सिखाया जाता है क्योंकि वह हमारी सगी या आत्मीय नहीं, बस ‘पराया धन’ है। शादी के बाद की यह विवशता जब तक बनी रहेगी स्त्रियां अपने अस्तित्व पर खरोंचें सहने को बाध्य हैं। इसके उलट पुरूषों को घर से शुरू हुए स्कूल से ही स्त्रियों को भोगने और अपने पीछे ढोने की सनक जैसी समझ घोल कर पिला दी जाती है।

आज जब भी यह बात होती है कि सेक्स शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए तो मैं यही सोचती हूं कि अगर इस पहले कदम पर ही इतना विरोध व बवंडर है तो आगे स्त्री-पुरूष संबंधों को समान धरातल पर समझने की सूरत आनी कितनी मुश्किल है। सूचना के साथ शिक्षा और मानवीय बर्ताव के नए खुले स्कूलों के तौर पर सामने आए टीवी, सिनेमा और साइबर दुनिया पर स्त्रियों को पेश करने का तरीका लजीज थाली परोसने जैसा ही है।

विवाह को एक समझौते या करारनामे की तरह समझने वाले मानवीय संबंधों को उसकी पूरी ऊर्जा और उष्मा के साथ बनने देने के हिमायती नहीं हैं। यौन साहचर्य की जगह यौन पराक्रम का लाइसेंस पाने के लिए जो लोग सात फेरे लेते हैं, उनके लिए इस समझ का कोई मतलब नहीं। किसी से बलात् कुछ भी हासिल करने की भूख मानवीय नहीं शैतानी है। विडंबना है कि इस शैतानी खेल को और हिंसक तरीके से खेलने के लिए औषधि और अवलेह तक का बड़ा बाजार है।

मौजूदा दौर बाजार का है। बदमिजाज बाजार ने आधी दुनिया को अपने लिए रास्ता बुहारने का काम काफी पहले सिखा दिया था। मंचों, समारोहों और पर्दों में सजने और बिकने वाली सुंदरता पर अगर आपकी भी नजर ठहरती है तो आपके लिए यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि मोबाइल फोन से लेकर कैंडी-टॉफी तक बेचने के लिए कैसे महिला शील का खुला हरण अपरिहार्य है।

अगर हम यह महसूस करते हैं कि इस दुनिया में स्त्रियों के लिए भी उतनी ही हवा और उतनी ही खुली जगह है जितना उसके पुरूष साथी के लिए तो हमें अपने सोच के सांचे को बदलना पड़ेगा। कहते हैं हर बड़ी पहल, हर बड़ी क्रांति की लौ सबसे पहले अपने अंदर जलानी होती है। अनेक तक पहुंचने के लिए शुरूआत ए क से करनी होती है। हमें उस धूल को झाड़ना होगा जिसमें हम अपने जीवनसाथी के लिए सबसे बड़े उत्पीड़क हैं। हम यह कभी न भूलें कि परपीड़ा न तो आनंद दे सकता है और न ही वीरता का संतोष। साहचर्य का सुख सहयोग और सामंजस्य में है। यौन वर्जनाओं और विकारों को बढ़ाने वाले साधनों के खिलाफ भी कठोर कदम उठाने की दरकार है।

सोमवार, फ़रवरी 08, 2010

फिल्म प्रमोशन का भावनात्मक खेल




खुद को विजेता सिद्ध करने की होड़ कलाकारों में इस कदर बढ़ गई है कि जनता के साथ भावनात्मक खेल खेलना उन्हें किसी भी लिहाज से गलत नहीं लगता। एक रपट-
शाहरूख खान हमेशा चर्चा में रहते हैं। इन दिनों वह मराठी-गैर मराठी के विवाद में फंसे हैं। हालांकि शाहरूख का यह कदम बिल्कुल उचित है। इन दिनों वह अपनी फिल्म ‘माई नेम इज खान’ को लेकर भी चर्चा में हैं। यह फिल्म 12 फरवरी को रिलीज होने जा रही है। फिल्म की झलकियां चैनलों पर लगातार दिखाई जा रही हैं। दिखाया जा रहा है कि किस तरह खान सरनेम होने की वजह से फिल्म के मुख्य किरदार रिजवान खान की तलाशी ए यरपोर्ट पर ली जाती है। यूं तो यह कोई बड़ी बात नहीं। कई फिल्मों में इस तरह के दृश्य दिखाए जा चुके हैं। लेकिन यह अपने आपमें खास है। खास इसलिए कि बॉलीवुड के किंग खान ने कुछ महीनों पहले हंगामा मचा दिया था कि अमेरिकी एयरपोर्ट पर पूछताछ के लिए उन्हें घंटों रोक कर रखा गया। मीडिया में इस पर बहस चली। बात यहीं खत्म नहीं हुई। संसद की दीवारों के कान तम यह खबर पहुंची। सभी इस मुद्दे पर जूझते दिखाई दिए । करण जौर से लेकर जूही चावला, सबने इस मुद्दे पर अपनी नाखुशी दर्शाई। अब जब, फिल्म के प्रोमोज दिखाए जा चुके हैं, जनता बेचारी खुद को ठगी महसूस कर रही है।


इन सबके बीच विजेता निकले शाहरूख। उन्होंने अपनी फिल्मों को लेकर जो हाइप बनानी चाही थी, उसमें सफल हुए । अब भले ही जनता कुछ भी महसूस करे। इससे उन्हें क्या? फिल्मों का प्रमोशन तो कलाकार पहले से करते आए हैं। इंटरव्यू देने से लेकर फिल्म से संबंधित चीजें दर्शकों को बांटना, सिनेमाहॉल की खिड़की पर बैठकर टिकटें बेचना, यह सब अब पुराना फलसफा रह गया है। भारी प्रतियोगिता के बीच कुछ नया कर दिखाने की चाह, सबके बीच खुद को विजेता साबित करने की होड़ ने कलाकारों को बदल कर रख दिया है। अब वे समझने लगे हैं कि यदि उन्हें जीत हासिल करनी है तो आम जनता के बीच जाना होगा। चलो, यह तो फिर भी ठीक है। लेकिन जनता की भावनाओं के साथ खेलना, यह कहां तक उचित है? लेकिन इन दिनों ‘ब्रिलियंट’, ‘परफेक्शनिस्ट’ और ‘सक्सेफुल’ जैसी उपाधियों से नवाजे जा रहे कलाकार ए ेसा ही कर रहे हैं। उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता कि जनता क्या सोचा रही है, वो क्या चाह रही है या उनकी ए ेसी हरकतों से उन पर क्या असर पह़ेगा। उन्हें तो फिक्र है केवल खुद की, अपनी जीत की।

आमिर की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ सिंगल स्क्रीन के साथ मल्टीप्लेक्स में बेहतरीन व्यापार कर रही है। लोगों को फिल्म पसंद भी आई। लेकिन इसे दर्शकों तक पहुंचाने में आमिर ने बहुत पापड़ बेले। आम जनता के साथ खेल खेला। कभी पहुंच गए वाराणसी तो कभी चंदेरी। जनता की आंखों में आंसू लाने के लिए अपनी मां के पुराने घर वाराणसी वेश बदलकर पहुंचे। ऑटो वाले को सोने की अंगूठी तक दी। उनकी ‘भलमनसहत’ यहीं खत्म नहीं हुई। अपने दो सप्ताह के टूर के दरम्यान वह मध्य प्रदेश के चंदेरी जिला भी जा पहुंचे। वो भी अकेले नहीं। करीना कपूर के साथ। चंदेरी हैंडलूम टेक्सटाइल बुनाई के लिए मशहूर है, जो अब अंतिम सांसें ले रही है। दोनों कुछ बुनकरों से मिले और उनसे वादा किया कि वे चंदेरी को बचाए ंगे। उस छोटे गांव में दोनों ने रात भी बिताई। यही नहीं, करीना ने तो उनकी बुनी साड़ी भी पहनी। अहमदाबाद के छोटे गांधीवादी स्कूल में प्रिंसिपल, शिक्षक, चपरासी और ए क विघार्थी को आमिर ने मुंबई में प्रीमियर पर आमंत्रित किया। उन्हें हवाई टिकटें तक भेजीं। अब समझ में यह नहीं आता कि आमिर को चंदेरी कला को बचाने का सपना अपनी फिल्म के प्रमोशन के मौके पर ही क्यों याद आया? उन्हें चपरासी की याद इसी समय क्यों आई? क्या यह खुद को विजेता साबित करने की कवायद नहीं?

आमिर का यह खेल ‘गजनी’ के दौरान भी चला था। जब गजनी हेयरकट देने के लिए वह शहरों में जा पहुंचे। सड़क किनारे सैलून खोल जनता के बाल कतरने उन्होंने शुरू कर दिए थे। जनता भी भावुक ही ठहरी, अपने स्टार की ए क झलक पाने और उसके हाथों बाल कटवाने जा पहुंची। भले ही वो हेयरस्टाइल सिर्फ नाम का ही हेयरस्टाइल हो। उसमें सिर पर बाल बचे ही कहां थे? प्रीमियर पार्टी में बुलाने का स्वांग तो शाहरूख खान ने भी रचा था। अपनी फिल्म ‘बिल्लू’ के प्रीमियर के मौके पर उन्होंने कुछ नाइयों को सपत्नी आमंत्रण भेजा था। इन सबके बीच जनता के सामने हाथ जोड़ने वाले अमिताभ बच्चन को कैसे बख्शा जाना चाहिए ? अपनी फिल्म ‘पा’ को प्रमोट करने के लिए वह स्कूलों में बच्चों को शिक्षा देने जा पहुंचे। वो भी प्रोजेरिया पर। गौरतलब है कि फिल्म में अमिताभ प्रोजेरिया पीड़ित बच्चे की भूमिका में दिखे। लेकिन क्या उन्होंने असल में प्रोजेरिया पीड़ित बच्चों के लिए कुछ किया? बिल्कुल नहीं। बिग बी का प्रमोशन यहीं नहीं थमा। उन्होंने आइडिया टेलीकॉम सर्विसेज के साथ करार किया। इसके अनुसार, खास नंबर पर फोन करने के बाद ऑरो (फिल्म में अमिताभ का नाम) आपको वापस फोन करेगा। बताने की जरूरत नहीं है कि बाद में किए गए फोन टेप किए गए होंगे।

अब 12 फरवरी को ‘माई नेम इज खान’ रिलीज होने जा रही है। कुछ माह पहले अमेरिकी एयरपोर्ट पर जांच को लेकर खासा हंगामा मचा चुके शाहरूख खान जनता की भावनाओं के साथ और कौन सा खेल खेलेंगे, यह तो वही जानें। वह अमिताभ बच्चन और आमिर खान की मार्केटिंग स्ट्रेटेजी को पार कर पाए गे या नहीं? जनता के आंसू बहाने में कामयाब हो पाए ंगे या नहीं? सबसे बड़ी बात, अपने हमकदम आमिर खान को परास्त कर पाए ंगे या नहीं?

शुक्रवार, फ़रवरी 05, 2010

भक्ति संगीत - पहचान का संकट




भक्ति का अपना बाजार है, इसी में शामिल है भक्ति संगीत। पिछले कुछ सालों में भक्ति संगीत का बाजार कम होता दिखा है। खासकर बड़े शहरों में, छोटे शहरों में तो भक्ति संगीत का बाजार अभी भी सांसें ले रहा है। हालांकि पिछले कुछ महीनों में इस बाजार में नयी आवाजों का आगाज हुआ है। भक्ति संगीत ने हमेशा नये गायकों को पहचान दी है। उनके करियर को बनाने में मदद की है। यही नहीं, इन गानों के म्यूजिक वीडियो भी अच्छी संख्या में बनते और बेचे जाते हैं। इस क्षेत्र में पहला नाम गुलशन कुमार का ही आता है, जिन्होंने लोगों की इस नब्ज को पकड़ा और ऑडियो के साथ वीडियो अलबम भी लांच करना शुरू किया। कुमार शानू से लेकर सोनू निगम, अनुराधा पौडवाल, उदित नारायण गुलशन कुमार की खोज ही हैं। इन सबने अपने करियर की शुरुआत प्राय: भक्ति गीत गाने से ही किया।
तुलसी कुमार को भले ही लोग गुलशन कुमार की बेटी के तौर पर पहचानते हों। सचाई तो यह है कि तुलसी ने भी अपने करियर की शुरुआत इसी से की। वह अब तक आठ सोलो अलबम कर चुकी हैं और अन्य कई अलबमों में गा चुकी हैं। तुलसी कहती हैं कि मैं अपने पिता की इस इच्छा को कभी खत्म नहीं होने दूंगी। मैं हमेशा फिल्मी गाने से ज्यादा तवज्जो भजन को ही दूंगी। 90 के दशक में भजन अलबम की काफी मांग थी। लेकिन अब यह कम है।
खासकर बड़े शहरों में। छोटे शहरों में तो लोग अब भी वैष्णो देवी और सांई बाबा के भजनों के दीवाने हैं। भक्ति संगीत के क्षेत्र में नया चलन यह देखने को मिल रहा है कि शास्त्रीय गायक अपने करियर की शुरुआत इसी से कर रहे हैं। भक्ति संगीत प्रतियोगिता सोना डिवोशनल म्यूजिक अवार्ड जीतने के बाद शास्त्रीय गायिका विधि शर्मा को रिकॉर्डिंग कांट्रैक्ट मिला है। केवल हमारे देश ही नहीं, बाहर से आए गायक भी भजन गायन में नाम कमाने को आतुर हैं। ऐसा ही नाम सुमीत टप्पू का है। मूलत: फिजी आइलैंड के सुमीत बचपन से ही अनूप जलोटा के मर्गदर्शन में गायिकी सीख रहे हैं। हाल में उन्होंने एक साथ चार अलबम लांच किये हैं। सुमीत इंडस्ट्री में 2003 से हैं लेकिन उन्हें "सांई गीता', "राम दर्शन' जैसे भजन अलबम के जरिए ही पहचान मिली। इनके गुरु अनूप जलोटा कहते हैं कि जब तक हमारे बीच भगवान और त्योहार होंगे, हमारे यहां भक्ति संगीत की मांग बनी रहेगी। वह इस ट्रेंड की ओर गौर करते हुए कहते हैं कि भक्ति संगीत सदा से ही शास्त्रीय संगीत का हिस्सा रहा है। नामी शास्त्रीय गायक हमेशा अपने प्रदर्शन की समाप्ति भजन से ही करते हैं, न कि गजल से। यहां यह बताते चलें कि अनूप जलोटा के भजन अलबम "भजन संध्या' ने 70 के दशक में सुपरहिट फिल्म "शोले' से ज्यादा बिकी थी। पंडित राजन-साजन मिश्रा की शिष्य अभिश्रुति बेजबरूआ देश-विदेश में शास्त्रीय गायन का लाइव प्रदर्शन करती है। उनकी पहचान न के बराबर हैं पर वह मानती हैं कि शास्त्रीय गायन के बलबूते ही लोगों के दिल में जगह नहीं मिलती। इसके लिए सालों तक लगा रहना पड़ता है। वह कहती हैं कि इसका आसान रास्ता भजन गायन है। अभिश्रुति को सोना डिवोशनल म्यूजिक अवार्ड में दूसरा स्थान हासिल हुआ है। दूसरे स्थान पर आने की वजह से उसको अपना अलबम लांच करने का पुरस्कार मिला है।

अजब-गजब-प्रमोशन



रियलिटी शो को रियलिज्म के शिखर तक पहुंचाने के लिए चैनल्स आमने-सामने आ गए हैं। सबकी एक ही मंशा है कि उनके कार्यक्रम का प्रमोशन सबसे "रियल' हो। रियलिटी शोज के अति रियलिज्म तक पहुंचते प्रमोशन पर स्पर्धा की रपट-

"जब वी मेट' का वह दृश्य तो याद होगा, जब करीना कपूर शाहिद से कहती है कि "तुम्हें अपनी प्रेमिका की दगाबाजी पर दुख है तो उसे जी भर कर गालियां दे डालो। उसकी फोटो फाड़कर जला दो और ट्वॉयलेट में फ्लश आउट कर दो। तुम्हारे मन को शांति मिलेगी।' अक्सर लोगों का दिल टूटता है, दुखता है। लेकिन इस दुख से उबरने का रास्ता नहीं मिलता। पिछले दिनों युवाओं को इस दुख से उबरने का रास्ता मिला "इमोशनल अत्याचार' के प्रमोशनल इवेंट में। इसमें यूज्ड कार को शहरों में ले जाया गया। कहा गया कि प्रेमी से धोखा पाने वाली लड़कियां अपनी फ्रस्ट्रेशन निकालने के लिए इस कार के टुकड़े कर सकती हैं। इसका असर खूब नजर आया। जहां-जहां यह कार पहुंची, लड़कियों ने जमकर तोड़-फोड़ मचायी। उनके दिल को तसल्ली मिली। शो की पब्लिसिटी जो हुई, वह अलग। यूटीवी बिंदास के चैनल प्रमुख हीथर गुप्ता का मानना है कि "इस तरह के प्रमोशनल इवेंट्स से आम लोग शो को समझ पाते हैं।

बिंदास ने तो अपने दूसरे कार्यक्रम "द बिग स्विच' को प्रमोट करने का अजूबा रास्ता ढूंढ निकाला। अपने कार्यक्रम को नये स्तर पर ले जाने के लिए उन्होंने पूरे एक साल के लिए एक बस्ती को गोद ले लिया। इसके लिए मुंबई के विले पार्ले स्थित बस्ती की सफाई के लिए 200 से भी अधिक निवासियों, कॉलेज विद्यार्थियों और यूटीवी कर्मचारियों को जुटा लिया। इस सफाई अभियान में कैटरीना कैफ ने भी योगदान दिया। स्टार पावर का योगदान यहीं खत्म नहीं होता। चैनल वी के शो "किडनैप' में दीया मिर्जा को किडनैप कर लिया गया और उन्हें ढूंढने का प्रस्ताव आम लोगों को दिया गया। वी के दुश्मन चैनल एमटीवी ने भी अजूबा रास्ता ढूंढा। "रोडीज सीजन 7' के प्रतिभागियों को परेल स्थित बंजर मिल में पहुंचने के लिए कहा गया। बताया गया था कि वहां उनके लिए पार्टी रखी गई है। पार्टी इतनी जबरदस्त थी कि अग्नि और साधक बैंड मौजूद थे। उसी कंसर्ट में 14 फाइनलिस्ट की घोषणा की गई। टीवी पर आने से पहले फाइनलिस्ट की घोषणा पहली बार आम जनता के सामने की गई। इसमें माधवन और शरमन जोशी भी शामिल हुए। जाहिर है कि इससे रोडीज को अलग तरह की प्रसिद्धि मिली।

रियलिटी शो को रियल कहा जाता है, तो भला इसका प्रमोशन रियल कैसे नहीं होगा। रियलिटी की खोज में उसके प्रमोशन के लिए रियलिज्म की अति तक पहुंच जाते हैं चैनल्स। पिछले साल फिल्म "तारे जमीन पर' पर आधारित बनाए स्कूप "बेचारे जमीन पर' को प्रमोट करने के लिए एमटीवी ने आम लोगों को ही बकरा बना डाला। उन्होंने घोषणा की कि इस फिल्म के प्रीमियर पर शाहरुख खान और ऋतिक रोशन पधारेंगे। स्टार्स तो आने वाले थे नहीं, सो लोगों के गुस्साए जाने की आशा से चैनल के कर्मचारियों ने खुद ही स्टूडियो के फर्नीचर और दरवाजे तोड़ डाले। भला यह कैसा प्रमोशन? कुछ दिनों पहले स्टार वल्र्ड ने भी कुछ ऐसा ही करने की कोशिश की। "महायात्रा' नामक रियलिटी शो का प्रमोशन भी अनोखे तरीके से किया गया। मुंबई के सिद्धि विनायक मंदिर शो के सारे प्रतियोगी पहुंचे तो दिल्ली के बिड़ला मंदिर में महायज्ञ का आयोजन किया गया। यही नहीं, दर्शक ज्यादा से ज्यादा संख्या में इससे जुड़ सकें, इसके लिए एसएमएस कांटेस्ट शुरू किया गया है। इसमें साप्ताहिक विजेता का चयन किया जाएगा। जीतने वाले को चार धाम की यात्रा का पुरस्कार मिलेगा। "अगली बेट्टी' के सीजन तीन की लांचिंग के मौके पर चैनल ने अगली बेट्टी के लुक में तैयार करीब 50 लड़कियों को मुंबई की ऐसी आम जगहों पर भेजा, जहां युवा ढेरों की तादाद में आते हैं। अगली बेट्टी सी ड्रेस, मोटे फ्रेम वाले चश्मे,ब्रोस,पोंचो और स्टॉकिंग्स पहने इन लड़कियों ने शो को बेहद अलग ढंग से प्रमोट कर डाला। यही नहीं, मुंबई,दिल्ली,बेंगलूरू की मीडिया एजेंसियों में इसके कट-आउट्स लगाए गए। आइडिया था कि सारे प्रोफेशनल्स अगली बेट्टी के साथ फोटो खिंचवाकर रख सकें। स्टार मूवीज और स्टार वल्र्ड की वाइस-प्रेसीडेंट ज्योत्सना विरियाला के अनुसार,पश्चिम के इस सुपरहिट सीरिज की हमारे यहां भी खास पहचान है। हमने एल मैगजीन के साथ भी टाई-अप किया है। इस कांटेस्ट का नाम "बेट्टी ऑफ एल' है। बेट्टी खुद फैशन मैगजीन में काम करती है। इस कांटेस्ट के विजेता को मुंबई स्थित इस मैगजीन के ऑफिस में दो महीने इंटर्नशिप करने के मौके के साथ ही 50,000 कैश रिवॉर्ड मिलेगा। कुछ ऐसा ही प्रमोशन का खेल "सच का सामना' के लिए भी देखने को मिला। मुंबई के वीटी स्टेशन पर 21 लोग दिखें। उन पर एक से लेकर इक्कीस तक नंबर लिखे थे। सबके पीछे मजेदार सच लिखा हुआ था।

शुक्रवार, जनवरी 08, 2010

मुन्नी मोबाइल का अलाप!


शहर के छोटे मोहल्ले में चल रही लड़ाइयों से लेकर गुजरात के दंगे तक पहुंच जाना, कोई आम बात नहीं है। ए क आम नौकरानी की कहानी के जरिए लेखक कई शहरों में घूम आता है। कहने को तो यह उपन्यास नौकरानी मुन्नी की कहानी कहता है, जो अपने छोटे स्तर के जीवन से ऊपर उठकर चकाचौंध की दुनिया में पहुंचना चाहती है। जिसका सपना उस दुनिया तक पहुंचने का है, जहां महत्वकांक्षाए दम नहीं तोड़तीं।
मौजूदा दौर बाजार का है। बदमिजाज बाजार ने आधी दुनिया को अपने लिए रास्ता बुहारने का काम काफी पहले सिखा दिया था। मंचो, समारोहों और पर्दो में सजने-संवरने व बिकने वाली सुंदरता पर आपकी नजर ठहरती भी है तो आपके लिए यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि मोबाइल फोन से लेकर कैंडी-टॉफी तक बेचने के लिए कैसे महिला शील का खुला हरण अपरिहार्य है। कई दफा तो खुद महिलाए ही इसके लिए जिम्मेदार होती हैं। ऊपर तक पहुंचने की ललक में वे यह समझ ही नहीं पाती कि आज वे जिस चकाचौंध की आ॓र बढ़ रही हैं, दूसरों को फंसा रही हैं, कल खुद उसी में फंस सकती हैं। पत्रकार-लेखक प्रदीप सौरभ की यह किताब ‘मुन्नी मोबाइल’ के केंद्र में मुन्नी नामक किरदार है। बिहार से आई मुन्नी का काम दूसरों के घर में झाड़ू-पोछा-बर्तन करना है। पत्रकार आनंद भारती उसे खाना पकाना सिखाते हैं और उन्ही के दम (परोक्ष ही सही) पर वह मुन्नी ठकुराइन तक बन जाती है। आनंद भारती के घर का पूरा काम संभालने के बाद मुन्नी की ख्वाहिश मोबाइल लेने की होती है, जिसके लिए वह आनंद भारती पर पूरी तरह से दबाव बनाती है। ‘वह सीधे उनके अखबार और आंख के बीच की दूरी को कम करते हुए बोली- मोबाइल चाहिए मुझे! मोबाइल! ... दो-तीन दिन नहीं, पूरा महीना गुजर गया। मुन्नी आती, अपना काम करती और चली जाती। उसका चुप्पी भरा प्रतिरोध आनंद भारती समझ रहे थे। पर वह चार-पांच हजार खर्च करने के मूड में नहीं थे। दिन बीत रहे थे और मुन्नी का मौन आनंद भारती को परेशान कर रहा था। ...मुन्नी की जुबान टस से मस नहीं हुई तो आनंद भारती ने मोबाइल उसके सामने कर दिया। उसके चेहरे पर ए क खास तरह की मुस्कान चमक उठी। बोली- नोकिया का है न!’
कहते हैं कि हर बड़ी पहल, हर बड़ी क्रांति की लौ सबसे पहले अपने अंदर जलानी होती है। अनेक तक पहुंचने के लिए शुरूआत ए क से करनी होती है। कुछ ए ेसा ही मुन्नी कर रही थी। धीरे-धीरे उसने आनंद भारती से इटालियन, चाइनीज, जापानी व्यंजन बनाना सीखा। और बाद में तो वह इससे काफी ऊपर उठ चुकी थी। मुन्नी का आनंद भारती और उनके घर के प्रति लगाव जिस तरह बढ़ रहा था, उसी तरह मुन्नी की मांग पूरी वसुंधरा में होने लगी थी। अब वह खुद कुक सप्लाई करने वाली महिला बन चुकी थी। मुन्नी ए ेसी महिला का प्रतीक है, जो ए क बार कुछ करने की ठान ले तो उसे पूरा करके ही दम लेती है। मुन्नी ए ेसी महिला का भी प्रतीक है, जिसे कोई चैलेंज कर दे तो वह उसे स्वीकारती भी है। ‘ए क दिन वह मुन्नी से बोले-तुम अंगूठा निशानी देती हो। तुम्हें शर्म नहीं आती। यह बात उसे अंदर ही कहीं लग गई। कहा- जिस दिन चाहूंगी दस्तखत करना सीख लूंगी। ...बैंक से उसका अंगूठा हट चुका था। उसके अंदर खास तरह का आत्मविश्वास जाग चुका था।’
बीच-बीच में लेखक का अपनी भांजी अस्मिता और उसके पति की आ॓र लेखनी को मोड़ लेना, मोदी के गुजरात पहुंच जाना, आर्थिक मंदी की आ॓र मुड़ जाना, कॉल सेंटरों की दुनिया में झांक आना, कोलकाता घूम आना, लंदन की सैर करना आदि केंद्रीय मुद्दे से भटकता सा प्रतीत होता है। हालांकि गोधरा कांड के समय आनंद भारती का व्यक्तिगत अनुभव पाठकों को जरूर प्रभावित करता है। ‘तलवारों के आगे अपने सीने भिड़ा दिये। कई हिन्दुओं ने अपने घरों में मुसलमान साथियों को पनाह देकर उनकी जिंदगी बचाई। जवान मुस्लिम लड़कियों के अनाथ होने पर बहुत सारे हिन्दू मुस्लिम जवान सामने आये।’ ‘मुन्नी मोबाइल’ के जरिए लेखक ने उन मुद्दों पर भी पाठकों का ध्यान खींचने की कोशिश की है, जिनका असल में कोई महत्व नहीं है। ‘बिहारी होना दिल्ली और उससे लगने वाले इलाकों मेंगाली की तरह था। उसने इस गाली को अपने आत्मसम्मान की ताकत बना लिया था। ...साहिबाबाद गांव में मेहनत-मजदूरी करने आए बिहारी, मुन्नी से प्रेरणा लेने लगे।’ पत्रकार-लेखक प्रदीप सौरभ ने मुन्नी के जरिए ए ेसे किरदार को रचने की भी कोशिश की है, जो समय की हवा के साथ पहले तो दबंग और फिर स्थानीय दादा बन जाती है। बस खरीदकर उसमें कंडक्टर के तौर पर चलती है, मुन्नी ठकुराइन कहलाती है। यहीं उसके जीवन की संघर्ष गाथा खत्म नहीं होती। वह लड़कियों की बड़ी सप्लायर बन जाती है।
शब्दों के इस्तेमाल को लेकर पुस्तक में ए क सा व्यवहार नहीं किया गया है। दिल्ली के पास के लगे इलाके की कहानी कही गई है, सो अंग्रेजी शब्दों के साथ गंवई भाषा का भी इस्तेमाल खूब किया गया है। जहां जब जो शब्द उचित लगा, उसे लिख दिया गया है। ‘मुन्नी मोबाइल’ के जरिए लेखक ने आधुनिक महानगरीय जीवन के कई गवाक्षों को बेधड़क खोलने का हौसला दिखाया गया है, जिसमें हमारे समय की अनेक अनकही कथाए छिपी हैं।
-- स्पर्धा

गुरुवार, जनवरी 07, 2010

मेरा चाहना


चाहती हूं...

तुम्हारी बांहों में खेलूं

चांद से प्यार करूं

चांदनी से नहाऊं

आसमां को ओढ़ूं

तारों को पहनूं

हवा मेरे गीत गाए

सुमन मुझे प्यार करे

फिर...

तुम मुझे

धरती की कोख में सुला दो

ऊपर से मिट्टी की चादर आ॓ढ़ा दो

और...

मैं सोती रहूं

सदियों तक तुम्हारे इंतजार में