शुक्रवार, मार्च 05, 2010

मैं स्वेच्छाचारी


तसलीमा नसरीन


बारिश और वज्रपात! इन्हीं सब में पिछले दिनों घर से निकल पड़ी। क्यों? बारिश में भीगने। क्यों? भीगोगी क्यों? इच्छा हो रही है!

इच्छा? जी, इच्छा!

लोग क्या सोचेंगे?क्यों सोचेंगे?

सोचेंगे, दिमाग खराब हो गया है! सोचने दो!बारिश में भीगोगी तो बीमार पड़ जाआ॓गी। कैसी बीमारी?सर्दी-बुखार! होने दो! इस उम्र में शोभा नहीं देता! किस उम्र में शोभा देता है?सोलह-सत्रह की उम्र होती, तो ठीक था। बहुतेरे लोगों की नजरों में यह भी ठीक नहीं। किस उम्र में क्या करना ठीक है, क्या गलत, किसने बनाई है यह लिस्ट? समाज ने!

समाज के लिए हम हैं या हमारे लिए समाज? नियम-कानून आखिर इंसान ही बनाता है न! इंसान ही उन्हें तोड़ता भी है। कोई भी नियम ज्यादा दिनों तक नहीं रहता।

हमारा संवाद इसके बाद और भी आगे बढ़ते हुए अंत में ‘स्वेच्छाचार’ पर आ थमा। ‘सवेच्छाचार’ शब्द का अर्थ, अगर ‘अपनी मन-मर्जी से काम करना’ हो (संसद बांग्ला शब्दकोश) तो मैं जरूर स्वेच्छाचारी हूं। शत-प्रतिशत! आखिर यह मेरी जिंदगी है। अपनी जिंदगी में, मैं क्या करूंगी, क्या नहीं करूंगी, यह फैसला मैं लूंगी। कोई दूसरा कौन लेगा? जिंदगी जिसकी है, बस उसी की है। अपनी जिंदगी में कौन, क्या करना चाहता है, इंसान को यह खुद जानना चाहिए। जिस इंसान में अभी तक कोई निजी इच्छा नहीं जागी, उसे मैं वयस्क इंसान नहीं कहूंगी। जो अभी तक अपनी मर्जी-मुताबिक नहीं चलता या चलने से डरता है, उसे मैं स्वस्थ दिमाग वाला इंसान नहीं मानती। अब सवाल यह उठता है कि अगर किसी के मन में किसी का खून करने की इच्छा सिर उठाए, तब अगर किसी के मन में बलात्कार करने की चाह जाग उठे तब? मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि जो स्वेच्छाचार दूसरों का नुकसान करे, उस स्वेच्छाचार में मेरा विश्वास नहीं है। वैसे अब इस नुकसान में भी फेर-बदल हो सकता है। अगर कोई यह कहे, ‘तुम धर्म की निंदा नहीं कर सकती क्योंकि तुम्हारी निंदा मेरी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाती है’, तब? किसी के शरीर पर आघात करने का मतलब अगर दूसरों को नुकसान पहुंचाना होता है तो मन पर आघात करने का मतलब दूसरों को नुकसान पहुंचाना क्यों नहीं होगा? इस मामले में मेरी राय है कि जिस इंसान के मन में अनेक तरह के कुसंस्कार और अज्ञान घर कर गये हैं, उन्हें दूर करना होगा। सजग-सचेतन इंसान की जिम्मेदारी है कि वह ये सब दूर करें। सवाल यह उठाया जा सकता है कि मैं अपने को सचेतन क्यों मान रही हूं और कट्टरवादी इंसान को सचेतन क्यों नहीं मानती? इसके पक्ष में मेरे पास सैकड़ों तर्क हैं। वैसे कट्टरवादी भी अपने-अपने तर्क पेश कर सकते हैं लेकिन मेरी जो विचार बुद्धि है, मैंने जो मूल्यबोध गढ़े हैं। उसके आधार पर मैं कट्टरपंथियों के तर्क को नितांत अवैज्ञानिक और बेतुका कह कर उनका खंडन करती हूं और अपनी राय पर स्थिर रह सकती हूं। जहां तक मेरा ख्याल है, मैं किसी के शरीर पर आघात नहीं करती, किसी भी सच्चे, ईमानदार इंसान के आर्थिक नुकसान की वजह नहीं बनती। अपनी स्वेच्छाचारिता को लेकर भी मुझे कभी, कोई पछतावा नहीं हुआ। आज तक कभी पछताना भी नहीं पड़ा समाज के अनगिनत ‘टैबू’ यानी रूढ़ियां मैंने तोड़ी हैं। लोगों ने इसे स्वेच्छाचार कहा, मैंने इसे अपनी आजादी माना। मैं अपने विवेक की नजर में बिल्कुल साफ और स्पष्ट हूं। मैं जो भी करती हूं, मेरी नजर में वह अन्याय या भूल नहीं है। अपनी नजर में ईमानदार और निरपराध बने रहने की कद्र बहुत ज्यादा है।

जब मैं किशोरी थी, कदम-कदम पर निषेधाज्ञा जारी थी। घर से बाहर मत जाना। खेलना-कूदना नहीं। सिनेमा-थियेटर मत जाता। छत पर मत जाना। पेड़ पर मत चढ़ना। किसी लड़के-छोकरे की तरफ आंख उठा कर मत देखना। किसी से प्रेम मत करना-लेकिन मैंने सब किया। मैंने किया, क्योंकि मेरा करने का मन हुआ। चूंकि मुझे मनाही थी इसलिए करने का मन हुआ, ऐसी बात नहीं थी। अब्बू तो मुझे और बहुत कुछ भी करने को मना करते थे। मसलन, पोखर में मत उतरना। मैं पोखर में नहीं उतरी क्योंकि मुझे तैरना नहीं आता था। इस वजह से मुझे आशंका होती थी कि तैराकी सीखे बिना, अगर मैं पोखर में उतरी, तो मजा तो मिट्टी होगा ही। असावधानीवश मैं डूब भी सकती हूं। अब्बू की कड़ी हिदायत थी-छत की रेलिंग पर मत चढ़ना। मैं नहीं चढ़ी क्योंकि मुझे लगता था कि रेलिंग संकरी है, अगर कहीं फिसल कर नीचे जा पड़ी तो सर्वनाश। कोई भी काम करते हुए लोगों ने क्या कहा-क्या नहीं कहा, मैंने यह कभी नहीं देखा। मैंने यह देखा कि मैंने खुद को क्या तर्क दिये। अपनी चाह या इच्छा के सामने मैं पूरी ईमानदारी से खड़ी होती हूं। औरतों के लिए जिनकी इच्छा का मोल यह पुरूषतान्त्रिक समाज कभी नहीं देता। अपनी इच्छा को प्रतििष्ठत करना आसान नहीं है। लेकिन मुझे इन्हें प्रतििष्ठत न करने की कोई वजह नजर नहीं आती। अपना भयभीत, पराजित, नतमस्तक, हाथ जोड़े हुए यह रूप मेरी ही नजर को बर्दाश्त नहीं होगा, मैं जानती हूं। मेरी सारी लड़ाई सच के लिए है। मेरी जंग समानता और सुंदरता के लिए है। यह जंग करने के लिए मुझे स्वेच्छाचारी होना ही होगा। इसके बिना यह जंग नहीं की जा सकती। व्यक्तिगत जीवन में भी सिर ऊंचा करके खड़े होने के लिए स्वेच्छाचारी बनना ही होगा। अगर मैं दूसरों की इच्छा पर चलूं, तब तो मैं पर-निर्भर कहलाऊंगी। अगर मैं दूसरों की बुद्धि और विचार के मुताबिक चली तो मैं निश्चित तौर पर मानसिक रूप से पंगु हूं। अगर मुझे दूसरों की करूणा पर जिंदगी गुजारनी पडे़ तो मैं कुछ और भले होऊं, आत्मनिर्भर तो हरगिज नहीं हूं। जहां स्वेच्छाचार का आनन्द न हो, मुक्त चिंतन न हो, मुक्त बुद्धि न हो, तब तो मैं मशीनी यंत्र बन जाऊंगी। इस ख्याल से तो मेरी सांस घुटने लगती है। ऐसे दु:सह जीवन से तो मौत ही भली। मर्द बिरादरी तो चिरकाल से ही स्वेच्छाचार करती आ रही है। यह समूचा समाज ही उन लोगों के अधीन है। औरत के लिए स्वेच्छाचार जरूरी है। इच्छाओं की कोठरी में अगर ताला जड़ देना पड़े, ताला जड़कर इस समाज में तथाकथित भली लड़की, लक्ष्मी लड़की, जहीन लड़की, शरीफ औरत, नम्र औरत का रूप धारण करना पड़े-तो अब जरूरी हो आया है कि औरत अपने आंचल में बंधी हुई चाबी खोले। ताला खोलकर अपनी तमाम इच्छाएं पंछी की तरह समूचे आसमान में उड़ा दे। हर आ॓र सर्वत्र औरत स्वेच्छाचारी बन जाए वरना आजादी का मतलब उन लोगों की समझ में नहीं आएगा, वरना वे लोग जिंदगी की खूबसूरती के दर्शन नहीं कर पाएंगी।

आजादी का क्या अर्थ है, मैं जानती हूं। अजादी की जरूरत, मैं पल-पल महसूस करती हूं। भले मैं अकेली रहूं या दुकेली रहूं या हजारों लोगों की भीड़ में रहूं, मैं अपनी आजादी किसी को दान नहीं करती या कहीं खो नहीं देती। हां, मैं आजादी और अधिकार के बारे में लिखती हूं और जो लिखती हूं, उस पर विश्वास भी करती हूं। जो विश्वास करती हूं, वही जीती हूं। मानसिक तौर पर मैं सबल हूं, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हूं और नैतिक रूप से आजाद इंसान हूं। मर्दों को यही बर्दाश्त नहीं होता। मर्द औरत में इतनी क्षमता पसंद नहीं करते। ये लोग औरत को अपने हाथों में ले कर या पैरों तले कुचल-पीस डालना चाहते हैं। जो पिस जाने से इनकार करती हैं वे बुरी हैं, वे भली औरत नहीं है। वे स्वेच्छाचारी हैं।

बहुतेरे लोगों की यह धारणा है कि स्वेच्छाचारी होने का मतलब है, किसी भी मर्द के साथ जब-तब सो जाना, सेक्स संबंध करना। लेकिन स्वेच्छाचार का यह अर्थ हरगिज नहीं है। बल्कि मर्दों के साथ न सोने को मैं स्वेच्छाचार मानती हूं। आम तौर पर नियम यही है कि औरत, मर्द के साथ सोए, मर्द की एक पुकार पर औरत चाहे जहां भी हो, उसके पास दौड़ कर चली आए। लेकिन सच तो यह है कि वही औरत स्वेच्छाचारी है जो इच्छा न हो, तो मर्द के साथ न सोए या सोने से इनकार कर दे! ऐसी स्वेच्छाचारी औरत को मर्द आखिर क्यों पसंद करने लगे? बहरहाल मर्द के सुख-भोग के लिए मर्द के तन-मन की तृप्ति के लिए मर्द की विकृति, ऐश-विलास मिटाने के लिए जो औरत अपने को लुटा न दे, मर्द उसे सिर्फ स्वेच्छाचारी ही नहीं, वेश्या तक कह कर उसका अपमान करने के लिए तैयार रहता है।

मेरा जो मन करता है, मैं वही करती हूं। हां, किसी का ध्वंस करके कुछ नहीं करती। चूंकि मैं स्वेच्छाचारी हूं, इसलिए जीवन का अर्थ और मूल्य, दोनों ही भली प्रकार समझ सकती हूं। अगर मैं स्वेच्छाचारी न होती, दूसरों की इच्छा-वेदी पर बलि हो गई होती, तो मुझ में यह समझने की ताकत कभी नहीं आती कि मैं कौन हूं, मैं क्यों हूं? इंसान अगर अपने को ही न पहचान पाए तो वह किसको पहचानेगा? आज अगर मैं स्वेच्छाचारी नहीं होती, तो शायद यह लेख, जो मैं लिख रही हूं उसका एक भी वाक्य नहीं लिख पाती।

ज़रूरी है उबरना


गिरिजा व्यास, अध्यक्ष, राष्ट्रीय महिला आयोग


महिलाओं के उत्थान की लगातार बातें होती रहती हैं। कागजों से लेकर चैनल्स पर इसकी बहस चलती है लेकिन होता वही है ढाक के तीन पात। दरअसल महिला होना ही अपने आपमें सबसे बड़ी दिक्कत है। सदियों बाद भी महिलाओं को दोयम दर्जा ही प्राप्त है। चाहे घर हो, परिवार हो, भारत हो या यूरोप, अमेरिका, महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। सीमोन द बुआ ने इसलिए कहा था कि महिलाएं चाहे जहां भी रहें, उन्हें पता नहीं होती कि उनकी सुबह कहां होगी। सीता से लेकर द्रौपदी तक, सभी अनिश्चय के दरवाजे पर खड़ी रहती हैं। अप स्थिति में थोड़ा अंतर तो आया है, लेकिन सामाजिक, पारिवारिक,आर्थिक स्वतंत्रता होने के बावजूद पुरानी बेड़ियां अब तक उनके पांवों में जकड़ी हुई हैं। इससे उबरना जरूरी है।


दरअसल इन सारी परेशानियों के बीज कहीं न कहीं महिलाओं के अंतर्मन में गहरे छिपे हैं। वह खुद स्वीकार नहीं कर पाती कि उसे इन रुढ़ियों से उबरना होगा। जरूरत यह है कि महिला खुद अपनी मानसिकता को परिवर्तित करे। वह खुद सारी परिस्थितियों को झेलने के लिए मजबूर हैं। उसे यह समझने की आवश्यकता है कि दूसरों की जिम्मेदारी के साथ वह खुद का दायित्व भी समझे। खुद के अस्तित्व को सिद्ध करने के प्रयास में वह लगातार झेलने को मजबूर है। समाज भी कम नहीं। वह लगातार उसी पर लांछन लगाता है। उसी को "विक्टिम माना जाता है। इसलिए हमने "सेव द फैमिली' कैम्पेन चलाया है। घरेलू हिंसा का एक्ट बनाया है। इसमें लगातार सुधार किए जा रहे हैं। फिर भी नये साल के इन दो महीनों में कई मामले हमारी जानकारी में आए हैं। घरेलू हिंसा और वैवाहिक विवाद के कुल मामले जनवरी माह में 194 और फरवरी माह में 104 सामने आए हैं। मुझे अफसोस है कि सरकार द्वारा उठाए जा रहे इन कदमों के बावजूद हमारे यहां घरेलू हिंसा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। हां, यह जरूर है कि जनवरी में एक भी नहीं और फरवरी में केवल एक ही दहेज का मामला सामने आया है। दिक्कत तो पूरे पारिवारिक और सामाजिक ढांचे में ही है। यदि यह सब कुछ स्त्रियों के साथ पुरुषों को भी समझ आ जाए तो फिर कोई परेशानी ही क्या!


पारिवारिक संस्था हमेशा बनी रहे, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी कई प्रयास किए हैं। सुप्रीम कोर्ट चाहता है कि माध्यम के जरिए पति-पत्नी की काउंसलिंग की जाए और उनके बीच के विवाद को समाप्त करने के प्रयास हों। इन दिनों जो एकल परिवार हैं, उन्हें ध्यान में रखकर ही सुप्रीम कोर्ट ने यह कदम उठाया है। पहले तो संयुक्त परिवार की धारणा थी, वहां परिवार के बीच ही काउंसलिंग हो जाया करती थी। घर बसे और स्त्री आराम से जीवन व्यापन करे, इसी की ख्वाहिश है। रियलिटी शोज में महिलाओं के अश्लील प्रदर्शन को लेकर भी हमने लगातार आवाज उठाया है। "इनडिसेंट प्रेजेंटेशन इन मीडिया' कानून भी इससे लगातार इनकार करता है। इस पर तो रोक लगना ही चाहिए। पर जरूरी तो स्व नियंत्रण भी है। चैलों के साथ इन शोज को बनाने वाले निर्माताओं को चाहिए कि वे इसे रोकने हेतु कदम उठाएं। लड़कियों में भी यह समझ हो कि वे खुद को वस्तु न समझें।


राजनीति में महिलाएं आगे आ सकें, इसके लिए संसद में तो उन्हें आरक्षण मिल रहा है। अब जरूरत है शिक्षा और नौकरी में उनहें आरक्षण मिले। हालांकि कई राज्य शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियों को आरक्षण दे रहे हैं लेकिन पूरे देश में अब तक यह लागू नहीं हुआ है। यदि लड़कियां अपने पैरों पर खड़ी हों, सक्षम हों तो फिर उनके जीवन में कष्ट वाले दर्दनाक पल कम ही आएंगे। मेरे जीवन में कई ऐसे दर्दनाक मामले आए हैं, जिन्हें देख-सुन और जानकर मेरी रूह कांप गई है। पहला, दोनों बांहें कटी औरत को पशु की तरह खाना दिया जाता था। उसके साथ यूं अत्याचार किया जाता था मानो वह पशु हो। दूसरा, सात साल की मानसिक विकलांग बच्ची के साथ कई बार रेप किया गया। तीसरा, रात के दो बजे कड़कड़ाती ठंड और गिरती बर्फ में अमेरिका में एक महिला को घर से बाहर निकाल दिया गया। ये सारे मामले दुहराए न जाएं, इसके लिए पांच बातों को ध्यान में रखने की जरूरत है-

1। कड़ा कानून

2। कानून पालन करने वाले यानी पुलिस का संवेदनशील होना

3। जागरुकता, जो नहीं है

4। नागरिक समाज की भूमिका

5। मीडिया की भूमिका

अभी हमारी बोतल आधी भरी है। जिस देश में राष्ट्रपति महिला हों, लोकसभा स्पीकर महिला हों, विपक्ष नेता महिला हो, उस देश में अब समय आ गया है कि स्त्री अपनी खोल से बाहर निकले।