शुक्रवार, अप्रैल 16, 2010

MISS PR--सुपहरहिट


आखिर कभी सोचा है कि पीआर क्षेत्र में महिलाओं का बोलबाला क्यों है?आखिर क्यों हर पीआर एजेंसी में शीर्ष से लेकर ट्रेनी तक लड़कियों ने ही मोर्चा थाम रखा है? आखिर क्यों हर सफल व्यक्ति या कंपनी के पीछे किसी पीआर महिला का ही हाथ होता है।

कंट्रोल करने की शक्ति, स्वभाव में गर्माहट, कम्यूनिकेशन स्किल, तमीज, मेहनती

ऐसे गुणों की फेहरिस्त तैयार की जाए तो पुरुष ही पीछे हैं। इन सारे गुणों की वजह से ही महिलाएं बाजी मार रही हैं। पारिवारिक व्यवस्था में भी विश्वास और मल्टीटाÏस्कग के गुण ही महिला को शीर्ष पर आसीन करते हैं। ये सारे गुण ही अब प्रोफेशनल माहौल में भी महिलाओं के रास्ते तय करने का कारण बनते जा रहे हैं। नये समझ में हर तरह की कंपनी में दो चीजों का बोलबाला होता है। पदृहला, पब्लिक रिलेशन और दूसरा ह्रूमन रिसोर्स। कंपनियों की चाहत होती है कि वे जो भी काम करें, उसका प्रचार-प्रसार बेहतरीन तरीके से हो। वे न केवल आर्थिक तौर पर विकास करें बल्कि उन्हें लोकप्रियता भी जमकर मिले। कंपनी की प्रोफाइल के हिसाब से यह काफी महत्व रखता है। विशेषकर प्रोडक्शन से जुड़ी कंपनियों के लिए तो यह बेहद जरूरी है।

यह काफी पुराना जुमला हो चुका है कि लोकप्रियता किसी की मोहताज नहीं। अब जमाना खुद को प्रमोट करने का है। जिसने खुद को प्रमोट नहीं किया, वह पीछे हो जाता है। यहीं रोल बनता है पब्लिक रिलेशन प्रोफेशनल यानी पीआर का। महिलाओं के गुण उन्हें बेहतरीन पीआर बनाने का माद्दा रखते हैं। फिर चाहे किसी कंपनी को लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचना हो या किसी कलाकार को नंबर एक की कुर्सी पानी हो। पीआर यदि महिला हो तो उसे लोगों के दिल में बसने से कोई रोक नहीं सकता। कई फिल्म और टीवी कलाकारों की पीआर मोनिका भट्टाचार्य का नाम इस लिहाज से उल्लेखनीय है। मोनिका को इस क्षेत्र में आने की प्रेरणा अपनी मां से मिली। मोनिका कहती हैं, "महिलाओं का आईक्यू अच्छा होता है। उनमें एक साथ कई काम करने का माद्दा होता है। हां, यह बात जरूर दीगर है कि बतौर महिला मुझे कई चैलेंज का सामना भी करना पड़ता है।' मोनिका की बात से इत्तिफाक रखती हुई मीडिया स्ट्रेटेजिस्ट दीपिका सिंह कहती हैं, "इस क्षेत्र में काम करने का सबसे बड़ा चैलेंज यात्रा करना है। घर के साथ ऑफिस को तो फिर भी संभाला जा सकता है। लेकिन बार-बार शहर से बाहर जाने में कई बार दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। कई बार छोटे शहरों का दौरा भी करने की जरूरत पड़ती है।' इतनी दिक्कतों के बावजूद भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि कड़ी मेहनत करने का जज्बा और दूसरों के साथ जल्दी घुल-मिल की प्रवृत्ति महिलाओं को पीआर क्षेत्र में दिनोंदिन आगे बढ़ा रही है।

यूं तो अब तक इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी पर कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया है। लेकिन अपने आस-पास नजर डालें तो हम पाएंगे कि पीआर एजेंसी या पीआर विभाग में काम करने वालों में करीब 80 फीसद संख्या महिलाओं की हैं। फिल्मों की बड़ी पीआर एजेंसी के एक मालिक अपना नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि इतनी अधिक संख्या में महिलाओं के पीआर में होने का ही मतलब है कि उनमें गजब की काबिलियत है। ये लड़कियों के काम करने के स्टाइल की न केवल तारीफों के पुल बांधते है, बल्कि उन्हें मेहनती होने के तमगे से भी नवाजते हैं। सामने वाला व्यक्ति कितना भी व्यस्त क्यों न हो, लड़कियों से आसानी से फोन पर बातें कर लेता है। इन महाशय की बात सौ फीसद सच है। अब इसे पॉजिटिव सेंस में लें या किसी और सेंस में, लड़कियों से बातें करते समय कम ही लोग गुस्से में आते हैं। उनसे बदतमीजी नहीं करते और न ही उन्हें परेशान करते हैं। पुरुषों की इस मानसिकता के पीछे का कारण पीआर पंडित एजेंसी की पीआर प्रोफेशनल पारूल सूरी बखूबी समझाती हैं, "दरअसल लड़कियों में ही इतनी तमीज होती है कि सामने वाला नाराज हो ही नहीं सकता। न तो लड़कियां गुस्सा होती हैं और न ही सामने वाले को गुससा होने का मौका देती हैं। वे जो भी काम करती हैं, बेहद सोच-समझकर करती हैं। काम के प्रति उनमें समर्पण भाव तो होता ही है।' इतनी सारी खूबियां वाकई किसी महिला में ही हो सकती हैं। वरना पुरुष न केवल भावुक होते हैं, बल्कि उनमें क्रिएटिविटी की भी सीमा होती है।

फर्श से अर्श तक पहुंचने का सपना तो हर किसी में होता है लेकिन उस सपने को हकीकत में बदलना हर किसी के बस का नहीं। पीआर की सारी क्वालिटी किसी में हो और सपने को हकीकत में बदलने का जज्बा भी तो उसे क्या कहेंगे। दस सालों में अपनी पीआर कंपनी इंपैक्ट पब्लिक रिलेशंस खड़ी करने वाली कुलप्रीत कौर के हौसले आज भी उतने ही बुलंद हैं। कुलप्रीत किसी पीआर कंपनी में एडमिनिस्ट्रेशन विभाग में थी। लेकिन वहां पीआर के काम करने लगीं। महसूस हुआ कि खुद ही कंपनी शुरू की जाए। बकौल कुलप्रीत, "अलग-अलग हिस्से में खुद को ढालने की क्षमता, कंट्रोल करने की शक्ति, धैर्य, बातें करने की क्षमता, स्वभाव में गर्माहट, मिलनसार, कम्यूनिकेशन स्किल जैसी खूबियों ने मेरा खूब साथ दिया।' खास तो यह है कि दूसरों की कंपनी और दूसरों को प्रमोट करने में कभी भी इन्हें नहीं महसूस हुआ कि ये खुद को प्रमोट करें। फिर चाहे मोनिका हों, दीपिका, पारूल या कुलप्रीत, दूसरों की सफलता के पीछे खही अपने अस्तित्व को नकारती नहीं। बल्कि दूसरों की सफलता पर इन्हें फक्र होता है। आखिर उनकी सफलता इनकी देन ही तो है।

सोमवार, अप्रैल 05, 2010

लहरें


कई बार मन में ख्याल उपजते हैं और फिर गुम भी हो जाते हैं। सोचती हूं कई बार और कई बार जूझती हूं। आखिर ये ख्याल आते ही क्यों हैं? और क्यों आकर मुझे विचलित कर जाते हैं। जीवन की सचाइयों से मैंने काफी कुछ सीखा है, वो भी काफी कम उम्र में। जिस उम्र में लड़कियां खिलखिलाती हैं, बचपने में रहती हैं, उस उम्र में मैंने अपनी खिलखिलाहट खो दी। एसा नहीं है कि मैंने अपनी खिलखिलाहट को बचाने की कोशिश नहीं की। एसा भी नहीं है कि मैं उलझती चली गई। उलझी जरूर लेकिन उससे निकलने का रास्ता भी मैंने ही ढूंढा। रात-रात भर खुद से सवाल पूछती रही कि मैं ही क्यों? जवाब मिले कई बार और कई दफा नहीं भी मिले। मिला तो दूर तक दिखता रास्ता, जिस पर मुझे कोई नहीं दिख रहा था।

मुझे हमेशा से एडवेंचर पसंद रहा है। दूर घुमावदार पहाड़ों तक निकल जाना या फिर आसमान को छूती पहाड़ियों तक पहुंचना। उससे भी ज्यादा पसंद रहा है समुद्र में खो जाना। समुद्र की गहराइयां मुझे खींचती हैं अपनी आ॓र। लगता है मानो मेरा कुछ हो वहां। जाना चाहती थी वहां, छूकर महसूस करना चाहती थी। आखिर कुछ तो है मेरा वहां। गई भी, मिला भी। पर रहा नहीं मेरे पास। मुझे छूकर निकल गया, बिल्कुल उसी तरह जैसे पानी हाथ को छूकर निकल जाता है। जैसे समुद्र किनारे पर आकर फिर लौट जाता है। किनारे पर चाहे जो भी लिख लो, आती लहरें उसे लेकर लौट ही जाती हैं।

लहरें, इनसे मेरा नाता पुराना रहा है। खूबसूरत लहरें, संगीतमय लहरें, उलझी सी सुलझी लहरें। कुछ दिन पहले ही पुरी जाना हुआ। लहरों से साक्षात्कार हुआ। लगा मानो मेरी पुरानी जान-पहचान हो। छूकर देखना चाहा, उसे अपनी गोद में समा लेना चाहा। पर लहरें कहां थमने वाली। हथेली में आईं, उंगलियों के पोरों से होते हुए मुझे छोड़कर निकल पड़ीं। मुझे रिदा कर गईं। पर मैं हार मानने वालों में नहीं हूं। मैं अकेले रास्ते पर चलने वालों में नहीं हूं। मुझमें इतनी कूवत है कि मैं निकल सकूं इसी रास्ते पर बिना झिझके, बिना ठहरे।

शनिवार, अप्रैल 03, 2010

जायका बदल कर देखें


मेरी सहेली गीता ने ये कविता लिखी, जो मुझे बेहद पसंद आई.
पढ़ते के साथ मन में आया क्यों न इसे अपने ब्लॉग पर प्रेषित कर दूँ।


ये स्क्रिप्टेड,
हमारी तुम्हारी ज़िन्दगी
फाईव स्टार होटल सी
आज थोडा मेनू बदल कर देखें
अचार के साथ भर कर भात हो
पीली वाली दाल, अरहर की
एक के उपर एक चढ़ी दीवारों से निकल कर
थोडा जायका बदल कर देखें
बिल्डिंग में हमारी बहस टकराकर तितली होती
काओं काओं के अभ्यास से दूर
मेरे तुम्हारे में चाय सुडकने कि सनक तो रह जाये
वो भी कहीं टिप टिप के शोर में न दब जाये
टिक टिक पर चलने वाले हो गए
हम सब और सभी तो ऐसे होते जा रहे हैं
नमक मिर्च कम ज़यादा कर लेने में आपका मेरा क्या जाता है
एक बार आजमा लेते हैं