सोमवार, मई 24, 2010

मेरी हिता....


मेरी सहेली गीता ने ये कविता बड़े प्यार से लिखी है...



कूदती फांदती,

नाक बहती

दांत खुजाती

कब गोद में आओगी...........

गुन गुने हाथों से

मेरे दूध को बोलो कब तुम सह्लओगी.......

पैर कब लगेंगे,

कब हाथ होंगे बड़े,

और तब तुम आकर

मेरे आँचल में छिप जाना

हम तुम मिलकर

तब लुका छिपी खेलेंगे.....

लव, धोखा और धोखेबाज


लिव-इन रिलेशन को लेकर कोर्ट ने छूट दे दी है। उन थकाऊ और उबाऊ लोगों के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया है, जो इसके खिलाफ बोलते रहे हैं। निश्चित तौर पर कोर्ट का यह फैसला पुरातनपंथी सोच वालों के गले नहीं उतर रहा। लिव-इन का पुरजोर समर्थन करने वाले खुश हैं लेकिन इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि चाहे लिव-इन हो या कोई अन्य रिश्ता, तमाम रिश्तों में धोखा देना आम बात हो गई है। अभी एक सप्ताह पहले ही खबर आई थी कि किस तरह ग्रेटर नोएडा में लिव-इन में रह रहे लड़के ने लड़की को धोखा दे दिया। मामला पुलिस थाने तक जा पहुंचा। यह कोई नई बात नहीं है। पहले भी रिश्ते में धोखा हुआ करते थे। अब भी होते हैं। बस अंतर यह है कि अब सामने आने लगे हैं। लोगों में हिम्मत बढ़ गई है।

लिव-इन का जोर इधर कुछ ज्यादा ही बढ़ा है। दिल्ली में रहने वाली रोमा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे एक दिन प्रशांत का साथ छोड़ने को मजबूर होना पड़ेगा। रोमा ने प्रशांत की हरसंभव देखभाल की। उसकी नौकरी न रहने पर उसका फोन बिल जमा कराने से लेकर उसके तनाव को झेला भी लेकिन रोमा को अंतत: कुछ हासिल नहीं हुआ। एक दिन प्रशांत ने कह दिया कि अब वह उसके साथ रिश्ता नहीं रखना चाहता। उसने कभी भी रोमा को चाहा ही नहीं। रोमा के पास सिवाए रोने के कोई और चारा ही नहीं था। लाख पूछने पर प्रशांत ने केवल यह बताया कि वह उसके टाइप की नहीं है। यह केवल रोमा और प्रशांत की कहानी नहीं है। धोखाधड़ी केवल लिव-इन या वैवाहिक रिश्ते में ही नहीं होती। भाई-बहन, दोस्त, मां-बच्चे के रिश्ते में भी धोखाधड़ी की पूरी आशंका रहती है। धोखा केवल स्त्री ही नहीं, पुरुषों को भी मिलता है। और धोखा केवल पुरुष ही नहीं, स्त्री भी देती है। बस अंतर यह होता है कि लड़कियां बेहद इमोशनल होती हैं, वे दिल से ज्यादा और दिमाग से कम सोचती हैं। उन पर समाज का इतना अधिक दबाव होता है कि इस बारे में सोचकर भी कुछ कर नहीं पातीं। दिमाग में कुछ आया नहीं कि उन विचारों को झटकने में लग जाती हैं।

तमाम आंकड़े और शोध भी बताते हैं कि लड़कियां दिमाग से कम और दिल से ज्यादा सोचती हैं। औसत तौर पर देखा जाए तो करीब 87 फीसद महिलाएं स्वीकारती हैं कि वे चाहकर भी अपने रिश्ते को छोड़ नहीं पातीं। धोखाधड़ी और चोरी के मामले में चाहे धोखा स्त्री ने दिया हो या पुरुष ने, धोखे का खामियाजा केवल स्त्री को ही उठाना पड़ता है। वह न केवल इमोशनल तौर पर टूटती-बिखरती है, बल्कि सामाजिक दायरे में भी उसे ही सब बर्दाश्त करना पड़ता है। यदि पुरुष ने उसे धोखा दिया है तो उसके सामने पहचान का संकट खड़ा हो जाता है। उसे महसूस होता है कि वह जहां भी जाएगी, सब उससे उस पुरुष के बारे में पूछेंगे, जिसने उसे छोड़ दिया है। यदि उसने धोखा दिया है तो भी उसी से ऐसे सवाल किए जाएंगे। उससे पूछा जाएगा कि आखिर उस पुरुष में क्या कमी थी जो उसने उसे छोड़ने की हिम्मत दिखाई। दोनों स्थितियों में लोग-समाज उसे ही दोष देंगे। तरह-तरह की उपाधियों से नवाजेंगे।
हाँ , यह जरूर है कि इन दिनों युवाओं के विचार में धोखा देने, लेने और महसूस करने के मायने जरूर बदल गए हैं। नई जेनरेशन के लिए धोखा करने का मतलब कोई बड़ा तूफान नहीं होता। जहां भी आप अपने को, अपनी भावनाओं को ठगा हुआ पाते हैं, वहीं आहट महसूस करते हैं। आप जिसके साथ रूम मेट के तौर पर रहते हैं, वहां भी धोखा चुभता है। फिर रिश्ते तो मन से जुड़े होते हैं। गहरे संबंध हों चाहे मामूली सा सहकर्मी, जब जुड़ाव होने लगता है तो तब ईमानदारी की उम्मीद भी होती है। यकीन जरा सा भी टूटे तो किरच चुभती ही है। कभी तो संभल जाते हैं। कभी घाव गहरे हो जाते हैं। देखा जाए तो धोखाधड़ी स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसकी कोई सटीक परिभाषा नहीं है और न ही खांचा। यह कभी भी किसी के मन में आ सकता है। सही तरह से समझने की कोशिश की जाए तो यह काफी हद तक व्यक्ति के स्वभाव पर निर्भर करता है। कई बार तो रिश्ते में स्पेस न मिलने की वजह से भी मन भागने लगता है। हर समय सवालों का जो फंदा सामने रहता है, उससे मन ऊब की ओर बढ़ता है। कई बार तो सामने वाले की अपेक्षाओं पर आप लगातार नहीं उतर पाते हैं तो भी रिश्ता टूटन की ओर बढ़ने लगता है। इसलिए बेहतर तो यह है कि आप अपने रिश्ते में रोमांच को बनाए रखें।

अब रश्मि और दीप्ति की दोस्ती को ही लें। दोनों एक-दूसरे के साथ करीब आठ साल से हैं। दोनों पक्के दोस्त हैं, बल्कि परिवार कहना ज्यादा बेहतर होगा। दीप्ति की जिंदगी में किसी का आगमन हुआ। जाहिर सी बात है दोनों का मिलना थोड़ा कम हो गया। रश्मि आठ साल की अपनी दोस्ती को यूं थोड़ा भी अलग होता नहीं देख पाई। वह बार-बार दीप्ति को फोन मिलाती और पूछती रहती कि वह कहां है। स्पेस न मिलने से दीप्ति का नाराज होना स्वाभाविक था। फलत: दीप्ति रश्मि से दूर होने लगी। यह स्पेस किसी भी रिश्ते को बनाए रखने, जोड़े रखने के लिए बेहद जरूरी होता है। रिश्ते में धोखा न हो, इसलिए बातचीत की पूरी आजादी होनी चाहिए। क्योंकि कहते हैं न कि बात करने से ही बात शुरू होती है।

मां का जन्म


मां होने का अहसास सिर्फ ईश्वर के बराबर होने जैसा सुखदायी ही नहीं है,जीवन देने और उसे संवारने की संतुष्टि मां शब्दों में नहीं बांट सकती।समय ने मां की भूमिका में भारी बदलाव भले ही ला दिये हों,आधुनिक मां सुपर मॉम बनने की धुन में अनजाने ही नयी परिभाषाएं गढती जा रही है।वह भावनात्मक रूप से बच्चों के और भी ज्यादा करीब है और उनके फिजिकल डेवलपमेंट के साथ ही मेंटल फिटनेस के लिए भी हर तरह से तैयार है

अनुभा खुश थी। कुछ महीनों पहले। सब उसकी चिंता करते थे। सब उसे अटेंशन देते थे। डॉक्टर से लेकर पति, रिश्तेदार सब उसकी हिमायत करने में लगे रहते थे। यहां तक कि बाजार में अपरिचित भी उसे आराम करने की सलाह देते थे। बस में वह सफर करती तो उसे तुरंत सीट मिल जाती। अनुभा को यह सब अच्छा लगता था। उसके अंदर कोई नया आकार जो ले रहा था। लेकिन यह क्या! उसकी प्यारी-सी बच्ची के जन्म लेने के बाद उसे महसूस होने लगा मानो वह उस दायरे से बाहर आ गई हो। अब उसे सारे काम खुद करने पड़ते। नौकरी पर जाना, लंच तैयार करना। लंच पैक करने से लेकर सास-ससुर के लिए लंच बनाकर जाना। शॉपिंग करना, बिल जमा करना, गैस के लिए नंबर लगाना-लाना, बिल्कुल उसी तरह से जैसे वह पहले किया करती थी। अनुभा को ऐसा लगने लगा मानो जिसके लिए उसे सबसे ज्यादा जिम्मेदार होना चाहिए, वह कोई फैक्टर ही नहीं है।

ऐसा सिर्फ अनुभा के साथ ही नहीं होता, मां बन चुकी अधिकतर महिलाएं ऐसा ही महसूस करती हैं, क्योंकि उनके साथ ऐसा ही होता है। नौकरी पर जाती मां हो या घर में रहने वाली, बच्चे की जिम्मेदारी सौ फीसद उसके पास होती है। दिन भर ऑफिस-घर के काम के बाद जब रात को नींद आती है तो भी बच्चे का रोना उसे जगा डालता है। ऐसे में नई मां को कोफ्त तो होगी ही। लेकिन अफसोस, उसकी इस कोफ्त की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। अब वो बात ही नहीं रही कि आप संयुक्त परिवार में रह रहे हों और आपके बच्चे की देखभाल के लिए कई लोग हों। इस खालीपन को भरने के लिए पिता का रोल जरूरी हो जाता है, जो किया नहीं जाता। औसत मां अपने पार्टनर से प्रति सप्ताह 20 घंटे अधिक काम करती है। भले ही उसे पे-चेक मिल रहा हो या नहीं।

बच्चे की देखभाल करना, उसे संभालना-संवारना निश्चित तौर पर कीमती काम है लेकिन इसके भी इफेक्ट्स हैं। कई बार मांएं बच्चे को संभालते-संभालते टूटने लगती हैं। और यदि उसे जगह बदलनी हो, ऑफिस जाना हो या बच्चा टेंपरामेंटल हो तो उसकी वाट लगने से कोई नहीं रोक पाता। कई अध्ययन बताते हैं कि यदि महिला को एक या दो बच्चे हों, खासकर तब जब उसे सपोर्ट करने के लिए कोई न हो तो थकान, डिप्रेशन,एंजायटी,टाइप 2 डायबिटीज, न्यूट्रिशनल डेफिसिट जैसे फिजिकल और मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम्स होने की आशंका काफी हद तक बढ़ जाती है। सेक्स में अरुचि और लड़ाई-झगड़े भी होने लगते हैं। यानी कि अधिकतर मांएं पैरेंटिंग के शुरुआती दिनों में फिजिकली और साइकोलॉजिकली डिप्लेटेड (शून्य) महसूस करती हैं। इसे डिप्लेटेड मदर सिंड्रोम कहते हैं। मां के लिए यह किसी भी लिहाज से सही नहीं है। यह न तो बच्चे के लिए अच्छा है और न उनके पापा के लिए। सबसे अच्छा तो यह हो कि पापा भी बच्चे के लालन-पालन में समय दें। शोधकर्ताओं ने पाया है कि जो पिता परिवार की रोजाना के काम-काज में जुड़े रहते हैं, बच्चे की मां के साथ जिनका जुड़ाव होता है,उनका मूड अधिकतर समय अच्छा रहता है। वे अपने पार्टनर के साथ अधिक संतुष्टमय जिंदगी बिताते हैं।

सबसे बुरी स्थिति तो मां की होती है। न तो वह अपना ख्याल रख पाती है, न ही ऑफिस में काम पर ध्यान दे पाती है, बल्कि पति से उसकी दूरी तलाक की ओर बढ़ने लगती है।दिक्कत तो यह भी है कि कम ही संस्थानों या अस्पतालों में इस मामले को तवज्जो दी जाती है कि परिवार को बढ़ाने और चलाने की जिम्मेदार मां की मदद कैसे की जाए। इसके साइकोलॉजिकल पहलू पर किसी का ध्यान नहीं जाता। अभी भी मांओं को केवल यही कहा जाता है कि "यह सब केवल तुम्हारे दिमाग में है,इससे मुक्ति पाओ'। दूसरी ओर, मीडिया के बढ़ते प्रपंच ने आम मांओं को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि वे "मॉडल मदर' की तरह नहीं है, जो फुल-टाइम जॉब करती हैं, जिनके क्यूट और वेल-मैनर्ड बच्चे हैं,जिनकी किचन सिंक हमेशा चमकती रहती है। कई स्तरों खासकर पिता, एक्सटेंडेड फैमिली और सरकारी सुविधाएं ना के बराबर मिलती हैं। अधिकतर मांएं बच्चों को अच्छी जिंदगी देने और अपने करियर को अच्छी तरह से चलाने के बीच फंस जाती हैं। टूटने लगती हैं, बिखरने लगती हैं। अंत में जो कम्प्रमाइज वे करती हैं, उसके बाद भी उनमें से कुछ ही खुश रह पाती हैं।

इतने टूटन और बिखराव के बाद भी मांओं को गिल्ट महसूस होता है कि उन्होंने "अपने लिए' क्यों ऐसा किया। क्यों खुद के लिए उन्होंने कुछ लेना चाहा, समय निकाला, दूसरों की मदद ली आदि। हमारी संस्कृति हो या परिवार की स्थिति, या फिर सरकार की पॉलिसी, इसे बदलने में अभी काफी समय है। मुखर होकर बोला जाए तो कई पिता तो अब भी खुद उठकर सूरज की रोशनी तक नहीं देख पाते।मांएं ही उठती हैं, लंबी सांस लेती हैं, उनींदी होती हुई खड़ी भी होती हैं और फिर काम में लग जाती हैं।अफसोस तो यह है कि इनके लिए कोई खड़ा नहीं होता। इनकी परवाह लोग नहीं करते। इन्हें खुशनुमा महसूस हो, इसके लिए कोई कवायद नहीं करता।

बुधवार, मई 05, 2010

नहीं तुम


तुम नहीं थे
मंद बहती बयार में
तेज चलते अंधड़ में
न तो उस आइसक्रीम में
जो तुमने मुझे दी थी खाने
एक बार नहीं कई-कई बार

तुम वहाँ भी नहीं थे
जिसे मैंने सबसे अपना माना
जहां मैं कई-कई बार जाती हूँ
देखती हूँ उस रास्ते पर
जहां तुम मुझे रिदा छोड़ गए थे
उन गलियों में जहां तुमने
पिलाई थी मुझे
अपने वे मीठे बोल
वह हंसी
जो देर तक अब तक
गूंजती रहती है मेरे कानों में

तुम नहीं हो
वहाँ जो मेरा शरीर है
जहां तुम्हारी अनुभूति है
जहां तुमने कभी स्पर्श किया था
तुम्हारी वो हलकी छुवन
मेरे गालों पर अब भी बसी
तुम क्यों नहीं हो वहाँ
जहां मेरी साँसे होकर भी नहीं हैं
मेरे आंसू हैं जहां
मेरे थरथराते होंठ
कापते हाथ पर
जहां अब भी तुम्हारा स्पर्श है