शुक्रवार, जनवरी 08, 2010

मुन्नी मोबाइल का अलाप!


शहर के छोटे मोहल्ले में चल रही लड़ाइयों से लेकर गुजरात के दंगे तक पहुंच जाना, कोई आम बात नहीं है। ए क आम नौकरानी की कहानी के जरिए लेखक कई शहरों में घूम आता है। कहने को तो यह उपन्यास नौकरानी मुन्नी की कहानी कहता है, जो अपने छोटे स्तर के जीवन से ऊपर उठकर चकाचौंध की दुनिया में पहुंचना चाहती है। जिसका सपना उस दुनिया तक पहुंचने का है, जहां महत्वकांक्षाए दम नहीं तोड़तीं।
मौजूदा दौर बाजार का है। बदमिजाज बाजार ने आधी दुनिया को अपने लिए रास्ता बुहारने का काम काफी पहले सिखा दिया था। मंचो, समारोहों और पर्दो में सजने-संवरने व बिकने वाली सुंदरता पर आपकी नजर ठहरती भी है तो आपके लिए यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि मोबाइल फोन से लेकर कैंडी-टॉफी तक बेचने के लिए कैसे महिला शील का खुला हरण अपरिहार्य है। कई दफा तो खुद महिलाए ही इसके लिए जिम्मेदार होती हैं। ऊपर तक पहुंचने की ललक में वे यह समझ ही नहीं पाती कि आज वे जिस चकाचौंध की आ॓र बढ़ रही हैं, दूसरों को फंसा रही हैं, कल खुद उसी में फंस सकती हैं। पत्रकार-लेखक प्रदीप सौरभ की यह किताब ‘मुन्नी मोबाइल’ के केंद्र में मुन्नी नामक किरदार है। बिहार से आई मुन्नी का काम दूसरों के घर में झाड़ू-पोछा-बर्तन करना है। पत्रकार आनंद भारती उसे खाना पकाना सिखाते हैं और उन्ही के दम (परोक्ष ही सही) पर वह मुन्नी ठकुराइन तक बन जाती है। आनंद भारती के घर का पूरा काम संभालने के बाद मुन्नी की ख्वाहिश मोबाइल लेने की होती है, जिसके लिए वह आनंद भारती पर पूरी तरह से दबाव बनाती है। ‘वह सीधे उनके अखबार और आंख के बीच की दूरी को कम करते हुए बोली- मोबाइल चाहिए मुझे! मोबाइल! ... दो-तीन दिन नहीं, पूरा महीना गुजर गया। मुन्नी आती, अपना काम करती और चली जाती। उसका चुप्पी भरा प्रतिरोध आनंद भारती समझ रहे थे। पर वह चार-पांच हजार खर्च करने के मूड में नहीं थे। दिन बीत रहे थे और मुन्नी का मौन आनंद भारती को परेशान कर रहा था। ...मुन्नी की जुबान टस से मस नहीं हुई तो आनंद भारती ने मोबाइल उसके सामने कर दिया। उसके चेहरे पर ए क खास तरह की मुस्कान चमक उठी। बोली- नोकिया का है न!’
कहते हैं कि हर बड़ी पहल, हर बड़ी क्रांति की लौ सबसे पहले अपने अंदर जलानी होती है। अनेक तक पहुंचने के लिए शुरूआत ए क से करनी होती है। कुछ ए ेसा ही मुन्नी कर रही थी। धीरे-धीरे उसने आनंद भारती से इटालियन, चाइनीज, जापानी व्यंजन बनाना सीखा। और बाद में तो वह इससे काफी ऊपर उठ चुकी थी। मुन्नी का आनंद भारती और उनके घर के प्रति लगाव जिस तरह बढ़ रहा था, उसी तरह मुन्नी की मांग पूरी वसुंधरा में होने लगी थी। अब वह खुद कुक सप्लाई करने वाली महिला बन चुकी थी। मुन्नी ए ेसी महिला का प्रतीक है, जो ए क बार कुछ करने की ठान ले तो उसे पूरा करके ही दम लेती है। मुन्नी ए ेसी महिला का भी प्रतीक है, जिसे कोई चैलेंज कर दे तो वह उसे स्वीकारती भी है। ‘ए क दिन वह मुन्नी से बोले-तुम अंगूठा निशानी देती हो। तुम्हें शर्म नहीं आती। यह बात उसे अंदर ही कहीं लग गई। कहा- जिस दिन चाहूंगी दस्तखत करना सीख लूंगी। ...बैंक से उसका अंगूठा हट चुका था। उसके अंदर खास तरह का आत्मविश्वास जाग चुका था।’
बीच-बीच में लेखक का अपनी भांजी अस्मिता और उसके पति की आ॓र लेखनी को मोड़ लेना, मोदी के गुजरात पहुंच जाना, आर्थिक मंदी की आ॓र मुड़ जाना, कॉल सेंटरों की दुनिया में झांक आना, कोलकाता घूम आना, लंदन की सैर करना आदि केंद्रीय मुद्दे से भटकता सा प्रतीत होता है। हालांकि गोधरा कांड के समय आनंद भारती का व्यक्तिगत अनुभव पाठकों को जरूर प्रभावित करता है। ‘तलवारों के आगे अपने सीने भिड़ा दिये। कई हिन्दुओं ने अपने घरों में मुसलमान साथियों को पनाह देकर उनकी जिंदगी बचाई। जवान मुस्लिम लड़कियों के अनाथ होने पर बहुत सारे हिन्दू मुस्लिम जवान सामने आये।’ ‘मुन्नी मोबाइल’ के जरिए लेखक ने उन मुद्दों पर भी पाठकों का ध्यान खींचने की कोशिश की है, जिनका असल में कोई महत्व नहीं है। ‘बिहारी होना दिल्ली और उससे लगने वाले इलाकों मेंगाली की तरह था। उसने इस गाली को अपने आत्मसम्मान की ताकत बना लिया था। ...साहिबाबाद गांव में मेहनत-मजदूरी करने आए बिहारी, मुन्नी से प्रेरणा लेने लगे।’ पत्रकार-लेखक प्रदीप सौरभ ने मुन्नी के जरिए ए ेसे किरदार को रचने की भी कोशिश की है, जो समय की हवा के साथ पहले तो दबंग और फिर स्थानीय दादा बन जाती है। बस खरीदकर उसमें कंडक्टर के तौर पर चलती है, मुन्नी ठकुराइन कहलाती है। यहीं उसके जीवन की संघर्ष गाथा खत्म नहीं होती। वह लड़कियों की बड़ी सप्लायर बन जाती है।
शब्दों के इस्तेमाल को लेकर पुस्तक में ए क सा व्यवहार नहीं किया गया है। दिल्ली के पास के लगे इलाके की कहानी कही गई है, सो अंग्रेजी शब्दों के साथ गंवई भाषा का भी इस्तेमाल खूब किया गया है। जहां जब जो शब्द उचित लगा, उसे लिख दिया गया है। ‘मुन्नी मोबाइल’ के जरिए लेखक ने आधुनिक महानगरीय जीवन के कई गवाक्षों को बेधड़क खोलने का हौसला दिखाया गया है, जिसमें हमारे समय की अनेक अनकही कथाए छिपी हैं।
-- स्पर्धा

1 टिप्पणी:

preeti pandey ने कहा…

mam sachmuch aapko blog duniya me dekh kar man khush ho gaya hai, aapne blog banakar ek pahla accha kam kiya hai, kyunki paper me toh hum bus paper ke manmutabik kaam karte hai lakin blog par hum puri tarah swatantr hai, apne vichaaro ko likhne ke liye.
bahut bahut bhadhaai.