सोमवार, जुलाई 25, 2011

बिंध जाती है आवाज


रात नींद नहीं आई। देर तक जागने और बीते नरम पलों को याद करने के दौरान आंखों के सामने कुछ और भी याद आता रहा। वे उजास भरे दिन और खूबसूरत कजरारी रातें भला कहां भूल सकती हूं मैं। नींद मानो कोसों दूर थी और सपने मानो मुझे गले लगाने को आतुर। सपने, जो मैंने खुली आंखों से देखा और जिनके पूरे होने की उम्मीद लिए आज भी सांसें ले रही हूं। निर्बाध काली रात कल मुझे अपने आकर्षण में घेर लेती थी, आज भी वही आकर्षण बरकरार है। लेकिन अब की रात मुझे जीने नहीं देती। उसका आकर्षण चरम पर पहुंच गया है, शायद इसलिए। या शायद इसलिए कि मैं उसे जीना नहीं चाहती।
रात पहले भी गहरी थी और अकेली थी। अब भी वैसी ही है। फिर भी कुछ तो बदल गया है इस रात में। निर्वासन की प्रक्रिया नहीं है यह, ना ही जिंदगी से मुंह मोड़ लेने का दौर। जिंदगी को खुली बाजुओं से समेटने का लोभ है यह। भला यह लोभ किसे नहीं होता। कौन नहीं आकर्षण में बंधे आगे खींचता चला जाता है। जीवन मानो पहली नजर का प्यार है, जो हमें बांध लेता है अंतिम सांस तक। चाहे रजनीगंधा को अपनी सांसों में भर लेने का मोह हो या फिर किसी की देह गंध को, खूशबू तो मानो सराबोर करने को आतुर रहती हो। फिर भी कई बार डर सा लगता है। डर लगता है कि कहीं जिंदगी के तारों को तनिक भी कस कर बांधा तो झनकते हुए टूट ना जाएं। यही बांधने का तो मुझे अभ्यास नहीं। डर तो यही लगता है कि सही तरीके से बांध पाऊंगी भी या नहीं। कहीं ढीला ना बांध दूं, कहीं कस दूं, मन इसी डर के ऊहापोह में बंधा रहता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे जुकाम में गला बंध जाता है, आवाज निकलते हुए बिंध जाती है।
अतीत, मुझे जकड़े हुए है। कहीं ना कहीं अंदर से। उसकी कौंध अब मुझे डराने लगी है। जकड़ लेती है मुझे और अपना बंधक बना लेती है। निकलने की कोशिश में लहूलुहान हो जाती हूं, ददोरे उभर आते हैं मेरे जिस्म पर। अफसोस भला कहां पीछा छोड़ते हैं। जीने नहीं देते और ही मरने देते हैं। बस बीच में टंगे रहते हैं, जिस तरह कमीज पर अधटूटी बटन टंगी रहती है। हमारे रोम-रोम में बददुआ की भांति सांसें लेते हैं और पीछे ले जाने को आतुर रहते हैं। इस बददुआ से राहत कहां मिलती है। बस, सांसों के बीच भींची आंखों से एक रजनीगंधा का मुस्कुराता फूल दिखाई देता है। रजनीगंधा भी अजर और अमर नहीं। इसलिए जब भी यह सूखती सी दिखती है, आवाज फिर बिंधने लगती है, हवा थम सी जाती है। रात का आकर्षण अपने चरम पर पहुंच जाता है। तब भय से मन कहता है गलत समय दस्तक दे बस।