शुक्रवार, जून 04, 2010

मैं ही हू...



























ज़ी हा...
फिर से मैं ही हू...
आती जाती...
गुनगुनाती...
इठलाती...
रोती गाती हंसती और हंसाती...
वो दिन जो थे मेरे...
जो थे हमारे...
कही हैं अब भी
मेरे अन्दर दहकते...
दह्काते मचलते...

9 टिप्‍पणियां:

arvind ने कहा…

आती जाती...
गुनगुनाती...
इठलाती...
रोती गाती हंसती और हंसाती...bahut sungar rachna.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

अपने मनोभावो को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं। बधाई।

दिलीप ने कहा…

sundar abhivyakti

संजय भास्‍कर ने कहा…

..कुछ अलग और बेहतरीन

M VERMA ने कहा…

वो दिन जो थे मेरे...
जो थे हमारे...
मेरे और हमारे के अंतर्द्वन्द को उकेरती हुई रचना.
सुन्दर

kunwarji's ने कहा…

वाह!सुन्दर अभिव्यक्ति,

पता नहीं क्यों मुझे लग रहा है कि आपने लेखनी अधर में रोक दी.....

कुंवर जी,

माधव( Madhav) ने कहा…

nicely composed

anu chauhan ने कहा…

bhut aacha likha hai..dil ko touch kar gaya...keep it up..

shilpi ranjan prashant ने कहा…

बेहतरीन रचना। अपनी मौजूदगी का एहसास होना अपने स्वाभिमान के प्रति सम्मान है। आती जाती गुनगुनाती तुम... इसी तरह जीवन में गतिमय बनी रहो।