सोमवार, अगस्त 01, 2011

कभी-कभी रोना


हम जब तक कि जान पाते, हमारी आंखों में आंसू होते हैं। संभव है कि आप उन लोगों में से हैं, जिनकी आंख में उंगली कट जाने से आंसू जाते हैं। शादी-ब्याह, बर्थडे पार्टी, बच्चों के प्रोग्राम तक में आपकी आंखों से गंगा-जमुना निकलने लगती है। या यह भी हो सकता है कि आप उनमें से हैं, जिन्हें यह याद नहीं अंतिम बार कब आपकी आंखों से आंसू निकले थे। वल्र्ड कप जीतते समय सचिन की आंखों में आंसू रहे हों या फिर 2008 के प्रेसिडेंशियल कैम्पेन के दौरान हिलेरी क्लिंटन की आंखों में आंसू, चाहते हुए भी कई बार भीड़ के सामने आंखों से आंसू निकल ही जाते हैं। क्या कभी आपने यह जानने की कोशिश की है कि हमारे रोने के पीछे के क्या कारण होते हैं? क्यों कुछ लोग इतना ज्यादा रोते हैं? इससे ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इन आंसुओं को किस तरह से संभला जाए? क्या कोई तरीका है कि जब आंसुओं की जरूरत हो, हम उन्हें रोक सकें? जैसे कि जब बॉस से डांट पड़ रही हो तो आंखों में झलकते हुए आंसुओं को रोक लिया जाए। आंसुओं पर काम कर चुके शोधकत्र्ता और थेरेपिस्ट ने जो भी ढूंढ निकाला है, उससे वे काफी कंफ्यूज्ड हो चुके हैं।
सबसे पहला सवाल तो यह आता है कि हम भला क्यों रोते हैं? इसका सीधा-सादा सा जवाब है- क्योंकि हम बहुत खुश या बहुत दुखी होते हैं। लेकिन यह कुछ ज्यादा ही सीधा जवाब है। सैंटा मोनिका स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया लॉस एंजेल्स के साइकोलॉजिस्ट स्टीफन साइडरोफ का कहना है कि दुखी होना या किसी की बात से कष्ट होने जैसी भावनाओं के आवेग में आंसुओं का निकलना प्राकृतिक संवेदनशील जवाब है। लेकनि कुछ लोग कुछ विशेष परिस्थितयों और आयोजन पर भी रो लेते हैं। कुछ लोग किसी की खूबसूरती को देखकर रो पड़ते हैं। यहां "पिघलना' शब्द का प्रयोग होना चाहिए। ये लोग अपने मन की भावनाओं पर कंट्रोल नहीं करते और अपने आवेग को बाहर निकलने देते हैं, जो उनके अंदर छिपा रहता है। यह बिल्कुल उसी तरह है, जब पिछले दिनों एक डांस रियलिटी शो में ऋतिक रोशन को अपने सामने खड़ा पाकर एक प्रतिभागी की आंखों से बरबस आंसू निकल पड़े। रोना इमोशनल पर्पज है, जो हमारे अंदर जकड़ी भावनाओं को सामने लाता है। इसके निकलने के बाद व्यक्ति अंदर से ऊर्जावान महसूस करता है।
रोने को जीने का जरिया भी कह सकते हैं, जब आप रोते हैं तो इसका मतलब है कि आपके अंदर भावनाओं का ज्वार है। दूसरे संदर्भों में जाएं तो इसका अर्थ हो सकता है कि आप कुंठित हैं, बहुत ज्यादा खुश हैं या फिर सिर्फ किसी की अटेंशन पाना चाहते हैं। फ्लोरिडा के टंपा जनरल हॉस्पिटल के न्यूरोसाइकोलॉजिस्ट जोडी डेलूका इसे "सेकेंडरी गेन क्राई' कहते हैं। आंसुओं का बायोकेमिकल पर्पज भी हो सकता है। माना जाता है कि इनके निकलने से स्ट्रेस हार्मोन्स और टॉक्सिन भी शरीर से बाहर निकल जाते हैं। कई रिसर्च में इस तथ्य को स्वीकारा गया है कि रोने से हमारी शारीरिक आैर मानसिक गंदगी बाहर जाती है। फ्लोरिडा के ही लॉरेन बिसलमा इसे सामाजिक कार्यक्रम मानते हुए कहते हैं कि रोने से आपको उन लोगों की मदद मिलती है, जो आपको रोते हुए देखते हैं। इसलिए कई दफा रोना मैनिपुलेटिव भी हो सकता है। आपको जो चाहिए, वह आप रोकर पा सकते हैं। चाहे मां से देर रात घूमने की इजाजत चाहिए या फिर अपने पति से अधिक शॉपिंग करने की स्वीकृति।
अधिकतर एक्सपट्र्स की मानें तो पुरुषों से ज्यादा आंसू महिलाओं के निकलते हैं। साइडरोफ का कहना है कि महिलाओं को रोने की स्वीकृति मिली हुई है। इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि शुरू से ही यह माना जाता रहा है कि रोना कमजोर लोगों का काम है। और स्त्रियां कमजोर हैं, इसलिए उन्हें रोने की इजाजत है। लेकिन अब समय बदल रहा है। हालांकि अब भी पुरुष खुद से ज्यादा कमजोर स्त्रियों को मानते ही हैं। जब रोने की आदतों पर बात की जाती है तो कुछ जल्दी रो लेते हैं तो कुछ बड़ी मुश्किल से। इसके कारण का भी पता नहीं लग पाया है लेकिन यह जरूर है कि इसमें व्यक्ति की मनोदशा बड़ी भूमिका निभाती है। कुछ लोगों का रुझान रोने की ओर ज्यादा होता है। कुछ इसे नजरअंदाज कर देते हैं या वे परस्थितियों में इतने जकड़े नहीं जाते हैं कि रोना शुरू कर दें। जिनकी जिंदगी में कटु अनुभव ज्यादा होते हैं या जिन्हें मानसिक आघात पहुंचा होता है, वे ज्यादा रोते हुए पाए जाते हैं। ऐसा तब और अधिक होता है, जब वे बार-बार उस समय में लौटते हैं। जो महिलाएं ज्यादा समय चिंता करते हुए व्यतीत करती हैं या फिर वे जो ज्यादा खुली होती हैं, अमूमन यह कहती हुई पाई जाती हैं कि रोकर उन्हें आराम महसूस होता है।
अधिकतर लोगों के मुंह से आपने सुना होगा कि रोने के बाद वे बेहतर महसूस करते हैं। सवाल यह उठता है कि क्या यह हमेशा सही होता है? इसका जवाब यह है कि अधिकतर बार ऐसा होता है लेकिन हमेशा नहीं। करीब 200 स्त्रियों के अध्ययन में सबने इस बात को नहीं माना कि रोने के बाद वे राहत महसूस कर रही हैं। बल्कि अध्ययन यह बताता है कि जो महिलाएं अधिक अवसाद या चिंता मे थीं, रोने के बाद उनकी स्थिति सुधरने की बजाय खराब हो गई। इसके कारण के बारे में पता नहीं चल पाया है। यह हो सकता है कि अवसाद या चिंता में रहने वालों को रोने से वह लाभ नहीं मिलता, जो दूसरों को मिलता है। हमेशा रोने वाले रोने के बाद राहत नहीं बल्कि तकलीफ महसूस करते हैं। ऐसा इसलिए कि जब कोई रोता है तो इससे उसके अतिसंवेदनशील होने का पता चलता है। कोई व्यक्ति भी यह नहीं चाहता कि उन्हें लोग अतिसंवेदनशील समझें। जब रोने वाला अतिसंवेदनशीलता दिखाता है तो इसका अर्थ यह है कि इससे वातावरण की अंतरंगता का स्तर शिफ्ट हो जाता है।
कुछ मामलों में उस आत्मीय वातावरण में रहने से दूसरा व्यक्ति अनकंफर्टेबल महसूस करता है। जब कोई रोता है तो आपको समझ नहीं आता कि आपके क्या करना चाहिए। ऐसी दशा में यदि आप रोने वाले के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं तो यह स्थिति और बुरी है। इस समय आपको कुछ ऐसा करना चाहिए, जिससे कि उसे लगे कि आप उसके साथ हैं। जो भी उस समय आपको सही लग रहा हो और आप उस व्यक्ति को कितने अच्छे से जानते हैं, इस पर निर्भर करता है कि आप उसे सपोर्ट करें। जैसे कि जिसके आप नजदीक हों, उसे गले लगाना उचित नहीं है। बस उसे चुपचाप सुन लेना ही अच्छा है। यह दिखाएं कि आप उसे कंफर्ट देना चाहते हैं। रिश्ता जितना कम आत्मीय है, उसमें यह पूछें कि आप किस तरह उनकी मदद कर सकते हैं। अध्ययन बताते हैं कि जो लोग बड़े समूह में रोते हैं, वे उनसे कम कंफर्टेबल महसूस करते हैं, जो परिवार के एक-दो लोगों के सामने रोते हैं। लेकिन यह जरूर तय है कि रोने वालों को अपने आस-पास के हर व्यक्ति से मदद जरूर मिलती है।
कई बार यूं ही आंसुओं को निकाल देना "कूल' नहीं माना जाता। जब आप किसी अपने के साथ अस्पताल जा रहे हों तो आपको बहादुरी भरा चेहरा लेकर जाना चाहिए, कि भयभीत और हारे हुए इंसान का चेहरा लेकर। यदि आपका मन रोने का है और स्थिति रोने वाली नहीं है तो रोने को कुछ देर के लिए ही रोकिए। याद रखिए कि भावनाओं और आवेग को दबाकर रखना आपके मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं। या फिर कोई दूसरी जगह चुनिए और वहां जाकर जी भर कर रो लें। यदि ऑफिस में रोना रहा है तो वॉशरूम का बहाना करके वहां रो सकते हैं। यदि रोने संभव ही नहीं है किसी अच्छे पल को याद कीजिए या कोई फनी वीडियो देख डालिए। यदि डॉक्टर के पास गए हैं तो मैग्जीन उठाकर नजर डाल लें। साइडरोफ कहते हैं कि कई कारणों से लोग अपने आंसुओं को दबा लेते हैं, जो ठीक नहीं है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि हम खुद को निर्जीव मान लेते हैं या फिर यह भी हम अपने भावनाओं को समझ नहीं पाते। इस तरह से हम दुनिया को डिप्रेशन भरा मान लेते हैं। भावनाओं का मतलब अच्छा या बुरा होना नहीं है, ये बस होती हैं। यदि दुख आंसुओं के जरिए हमारे अंदर से निकलें तो इसका मतलब यह है कि हमारे अन्य अंग रो रहे हैं।