एक रूसी मान्यता के मुताबिक किसी सुल्तान के राजकाज के बारे में उसके राजकीय फैसलों और नीतियों से ज्यादा उसके हरम में झांककर पता लगाया जा सकता है। हाल के एक सर्वे में ए क बार फिर यह क्रूर सचाई रेखांकित हुई है कि महिलाए देहरी से बाहर से ज्यादा उसके अंदर प्रताड़ित और शोषित हैं। सर्वे में बताया गया है कि 44 फीसद पत्नियां यौन संबंधों में पति के पाशविक आग्रहों को मानने या यों कहें कि भुगतने को मोहताज हैं। दिलचस्प है कि यह उसी दौर की सचाई है जिसमें मानवाधिकार और स्त्री अधिकारों को लेकर सबसे ज्यादा विमर्श और संघर्ष की बातें की जाती हैं।
भारतीय समाज में औरतों की स्थिति के बारे में मुझे तो यही लगता है कि यहां पूरी जिंदगी महिलाए बस एक के बाद दूसरे खूंटे से बंधती हैं। कवयित्री कात्यायनी के शब्दों की मदद लें तो इस ‘पौरूषपूर्ण समय’ में आधी दुनिया के लिए अगर कुछ बदला है तो वह है उसके लिए सताए या भोगे जाने के ‘सेंस’ और ‘स्पेस’ में बढ़ोतरी। विवाह हमारे समाज की सबसे पुरानी संस्था है। पर बदकिस्मती से शुरू से ही इस संस्था का चरित्र पुरूष ही गढ़ते रहे हैं। सभ्यता और शिक्षा का हासिल भी बस इतना रहा है कि जिस अनुशासन को अब तक स्त्रियां कुलीन संस्कारों के नाम पर मानती रही हैं, आज उसकी रिसती हुई सचाई पर चिंता व विमर्श की गुंजाइश बनी है। बेटियों को पति को स्वामी रूप में देखने की समझ बचपन में ही पोलियो के खुराक की तरह दे दी जाती है। यही नहीं उसके साथ मर्यादा की वह लक्ष्मण रेखा भी वह अपने साथ ही लिए चलती है जिसके तहत पति के आश्रय, उसके घर, उसकी मोहताजी के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं। यह सब सबक हमारे समाज में बेटियों को महज इसलिए सिखाया जाता है क्योंकि वह हमारी सगी या आत्मीय नहीं, बस ‘पराया धन’ है। शादी के बाद की यह विवशता जब तक बनी रहेगी स्त्रियां अपने अस्तित्व पर खरोंचें सहने को बाध्य हैं। इसके उलट पुरूषों को घर से शुरू हुए स्कूल से ही स्त्रियों को भोगने और अपने पीछे ढोने की सनक जैसी समझ घोल कर पिला दी जाती है।
आज जब भी यह बात होती है कि सेक्स शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए तो मैं यही सोचती हूं कि अगर इस पहले कदम पर ही इतना विरोध व बवंडर है तो आगे स्त्री-पुरूष संबंधों को समान धरातल पर समझने की सूरत आनी कितनी मुश्किल है। सूचना के साथ शिक्षा और मानवीय बर्ताव के नए खुले स्कूलों के तौर पर सामने आए टीवी, सिनेमा और साइबर दुनिया पर स्त्रियों को पेश करने का तरीका लजीज थाली परोसने जैसा ही है।
विवाह को एक समझौते या करारनामे की तरह समझने वाले मानवीय संबंधों को उसकी पूरी ऊर्जा और उष्मा के साथ बनने देने के हिमायती नहीं हैं। यौन साहचर्य की जगह यौन पराक्रम का लाइसेंस पाने के लिए जो लोग सात फेरे लेते हैं, उनके लिए इस समझ का कोई मतलब नहीं। किसी से बलात् कुछ भी हासिल करने की भूख मानवीय नहीं शैतानी है। विडंबना है कि इस शैतानी खेल को और हिंसक तरीके से खेलने के लिए औषधि और अवलेह तक का बड़ा बाजार है।
मौजूदा दौर बाजार का है। बदमिजाज बाजार ने आधी दुनिया को अपने लिए रास्ता बुहारने का काम काफी पहले सिखा दिया था। मंचों, समारोहों और पर्दों में सजने और बिकने वाली सुंदरता पर अगर आपकी भी नजर ठहरती है तो आपके लिए यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि मोबाइल फोन से लेकर कैंडी-टॉफी तक बेचने के लिए कैसे महिला शील का खुला हरण अपरिहार्य है।
अगर हम यह महसूस करते हैं कि इस दुनिया में स्त्रियों के लिए भी उतनी ही हवा और उतनी ही खुली जगह है जितना उसके पुरूष साथी के लिए तो हमें अपने सोच के सांचे को बदलना पड़ेगा। कहते हैं हर बड़ी पहल, हर बड़ी क्रांति की लौ सबसे पहले अपने अंदर जलानी होती है। अनेक तक पहुंचने के लिए शुरूआत ए क से करनी होती है। हमें उस धूल को झाड़ना होगा जिसमें हम अपने जीवनसाथी के लिए सबसे बड़े उत्पीड़क हैं। हम यह कभी न भूलें कि परपीड़ा न तो आनंद दे सकता है और न ही वीरता का संतोष। साहचर्य का सुख सहयोग और सामंजस्य में है। यौन वर्जनाओं और विकारों को बढ़ाने वाले साधनों के खिलाफ भी कठोर कदम उठाने की दरकार है।