बुधवार, फ़रवरी 10, 2010

इस पौरूषपूर्ण समय में


एक रूसी मान्यता के मुताबिक किसी सुल्तान के राजकाज के बारे में उसके राजकीय फैसलों और नीतियों से ज्यादा उसके हरम में झांककर पता लगाया जा सकता है। हाल के एक सर्वे में ए क बार फिर यह क्रूर सचाई रेखांकित हुई है कि महिलाए देहरी से बाहर से ज्यादा उसके अंदर प्रताड़ित और शोषित हैं। सर्वे में बताया गया है कि 44 फीसद पत्नियां यौन संबंधों में पति के पाशविक आग्रहों को मानने या यों कहें कि भुगतने को मोहताज हैं। दिलचस्प है कि यह उसी दौर की सचाई है जिसमें मानवाधिकार और स्त्री अधिकारों को लेकर सबसे ज्यादा विमर्श और संघर्ष की बातें की जाती हैं।

भारतीय समाज में औरतों की स्थिति के बारे में मुझे तो यही लगता है कि यहां पूरी जिंदगी महिलाए बस एक के बाद दूसरे खूंटे से बंधती हैं। कवयित्री कात्यायनी के शब्दों की मदद लें तो इस ‘पौरूषपूर्ण समय’ में आधी दुनिया के लिए अगर कुछ बदला है तो वह है उसके लिए सताए या भोगे जाने के ‘सेंस’ और ‘स्पेस’ में बढ़ोतरी। विवाह हमारे समाज की सबसे पुरानी संस्था है। पर बदकिस्मती से शुरू से ही इस संस्था का चरित्र पुरूष ही गढ़ते रहे हैं। सभ्यता और शिक्षा का हासिल भी बस इतना रहा है कि जिस अनुशासन को अब तक स्त्रियां कुलीन संस्कारों के नाम पर मानती रही हैं, आज उसकी रिसती हुई सचाई पर चिंता व विमर्श की गुंजाइश बनी है। बेटियों को पति को स्वामी रूप में देखने की समझ बचपन में ही पोलियो के खुराक की तरह दे दी जाती है। यही नहीं उसके साथ मर्यादा की वह लक्ष्मण रेखा भी वह अपने साथ ही लिए चलती है जिसके तहत पति के आश्रय, उसके घर, उसकी मोहताजी के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं। यह सब सबक हमारे समाज में बेटियों को महज इसलिए सिखाया जाता है क्योंकि वह हमारी सगी या आत्मीय नहीं, बस ‘पराया धन’ है। शादी के बाद की यह विवशता जब तक बनी रहेगी स्त्रियां अपने अस्तित्व पर खरोंचें सहने को बाध्य हैं। इसके उलट पुरूषों को घर से शुरू हुए स्कूल से ही स्त्रियों को भोगने और अपने पीछे ढोने की सनक जैसी समझ घोल कर पिला दी जाती है।

आज जब भी यह बात होती है कि सेक्स शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए तो मैं यही सोचती हूं कि अगर इस पहले कदम पर ही इतना विरोध व बवंडर है तो आगे स्त्री-पुरूष संबंधों को समान धरातल पर समझने की सूरत आनी कितनी मुश्किल है। सूचना के साथ शिक्षा और मानवीय बर्ताव के नए खुले स्कूलों के तौर पर सामने आए टीवी, सिनेमा और साइबर दुनिया पर स्त्रियों को पेश करने का तरीका लजीज थाली परोसने जैसा ही है।

विवाह को एक समझौते या करारनामे की तरह समझने वाले मानवीय संबंधों को उसकी पूरी ऊर्जा और उष्मा के साथ बनने देने के हिमायती नहीं हैं। यौन साहचर्य की जगह यौन पराक्रम का लाइसेंस पाने के लिए जो लोग सात फेरे लेते हैं, उनके लिए इस समझ का कोई मतलब नहीं। किसी से बलात् कुछ भी हासिल करने की भूख मानवीय नहीं शैतानी है। विडंबना है कि इस शैतानी खेल को और हिंसक तरीके से खेलने के लिए औषधि और अवलेह तक का बड़ा बाजार है।

मौजूदा दौर बाजार का है। बदमिजाज बाजार ने आधी दुनिया को अपने लिए रास्ता बुहारने का काम काफी पहले सिखा दिया था। मंचों, समारोहों और पर्दों में सजने और बिकने वाली सुंदरता पर अगर आपकी भी नजर ठहरती है तो आपके लिए यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि मोबाइल फोन से लेकर कैंडी-टॉफी तक बेचने के लिए कैसे महिला शील का खुला हरण अपरिहार्य है।

अगर हम यह महसूस करते हैं कि इस दुनिया में स्त्रियों के लिए भी उतनी ही हवा और उतनी ही खुली जगह है जितना उसके पुरूष साथी के लिए तो हमें अपने सोच के सांचे को बदलना पड़ेगा। कहते हैं हर बड़ी पहल, हर बड़ी क्रांति की लौ सबसे पहले अपने अंदर जलानी होती है। अनेक तक पहुंचने के लिए शुरूआत ए क से करनी होती है। हमें उस धूल को झाड़ना होगा जिसमें हम अपने जीवनसाथी के लिए सबसे बड़े उत्पीड़क हैं। हम यह कभी न भूलें कि परपीड़ा न तो आनंद दे सकता है और न ही वीरता का संतोष। साहचर्य का सुख सहयोग और सामंजस्य में है। यौन वर्जनाओं और विकारों को बढ़ाने वाले साधनों के खिलाफ भी कठोर कदम उठाने की दरकार है।

2 टिप्‍पणियां:

rambha ने कहा…

very well written spardha.

Stri swatantrata aur dunia ke sare andolano ko agar ek taraf rah do toh bhi domestic violence ka palda aaj bhi bhari hi dikhta hai.

And in the real sense we need to undestand that these types of changes which are socially enrooted will take a much longer time period to change in a drastic way.

I am still searching to type in hindi if u have any way pl let me know.

sunil kumar ने कहा…

समाज को व्यावहारिक धरातल पर लाने की कवायद और खुद उसी कसौटी पर खरा उतरना दो बातें हैं।

जहां तक कवायद का सवाल है, लेख पढ़कर ऐसा लगता है, मानो यौन उन्मुक्तता और प्रतिष्ठित परंपराओं को तोड़कर आधी आबादी समाज में वो मुकाम हासिल कर सकती है, जिसे आमतौर पर महिलाएं पाश्चात्य सभ्यता संस्कृति का मुंह ताककर स्वयं के अहं को तौलती हैं। यह बात और है कि जिस ओर मुंह ताका जाता है, वहां की सभ्यता-संस्कृति और तहजीब मौजूदा भारतीय समाज से भी ज्यादा खोखली है।

विकास के जिस स्तर पर पहुंचने की संकल्पना विचारों में रूपायित-रेखांकित की गई है, उसके लिए जरूरी है कि महिलाएं या आधी आबादी सबसे पहले अपनी इज्जत करे और अपने सामास की भी, क्योंकि आमतौर पर पाया यही गया है कि आधी-आबादी स्वयं की शत्रु है, समाज में भी और घर में भी।

ऐसे में जहां तक समाज को व्यावहारिक धरातल पर लाने का सवाल है, गुटबाजी और स्वार्थ के छद्म आवरण ओढे यह संभव नहीं, ज्यादातर नारीवादी आंदोलन इसका शिकार रही हैं।

खुद को उसी कसौटी पर कसना असंभव है, क्योंकि पथरीली जमीन पर नंगे पाव चलना कोई नहीं चाहता।