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स्पर्धा
मंगलवार, नवंबर 30, 2010
कहानी रेत की
जाते
समय तुम मेरी हंसी ले गए
मेरी मुस्कान भी चली गयी
अब तो इन्तेहा हो गयी
प्यार जैसे मर गया
रेत हो गयी मैं
भरभराती फिसलती
बिखरती उड़ती
धूसरित होती
रेत भी भला
क्या कभी हंसती है
स्वीकार लेती है बस उड़ना
बिखरना फिसलना
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स्पर्धा
जिंदगी को जीने की इच्छा है बस...
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