गुरुवार, जून 21, 2012

इरेजर




इरेजर बचपन की पसंद 
लिखो और झट से मिटा लो
खुशबू भी उसकी कुछ अलग 
ऑरेंज तो कभी मैंगो फ्लेवर
रंग-बिरंगे डिजाइनर
यादों की तरह सपनीले भी
दोनों ही प्रिय थे बेहद
आज भी इरेजर की महक 
कहीं आ जाती है
मीठा लगता है आज भी आम
इरेजर आज नहीं है लेकिन 
है बस यादों का इंस्ट्रूमेंट बॉक्स
काश कि मिटा पाते हम 
कुछ लिखा पेंसिल का
मिटा पाते कोई चेहरा
कोई गंध कोई रंग
वे रंगीले ब्रश स्ट्रोक्स

गुरुवार, मई 31, 2012

विशेषण नहीं




प्रेम कोई गुल्लक नहीं
फोड़कर जिससे निकाल लूं सिक्के
ना ही कोई अलादीन का खजाना
जो बंद पड़ा हो किसी के इंतजार में


प्रेम पसीने की तरह है
जितना भी बहे 
कम ही है
उधार नहीं ले सकते इसे
ना ही किसी को दे सकते हैं उपहार 


प्रेम राह में भटक रहे 
यात्री की यात्रा 
टिकट लो या ना लो
मंजिल की खोज तो है ही


प्रेम ना ही वीरानगी है
ना सूखा, ना बाढ़
ना ही आंधी या तूफान
कुछ भी तो नहीं


कोई संज्ञा नहीं
कोई विशेषण नहीं
ना ही कोई उपनाम
दे दो चाहे जितने नाम


प्रेम बस एक हूक
सिर्फ एक सुखद कराह
हाथ की उंगलियों सा 
थाम ले जो सब कुछ

मंगलवार, मई 22, 2012

आज ही तो है


तुम्हें चिढ़ाना

चांद को आजमाना

बस कल की ही बात तो है





यूं ही रूठना और बिगड़ जाना

हंसी को थाम लेना
उंगलियों को फोड़ लेना
और हां,
नाखूनों को नेलकटर से काटना
आज ही तो है





कभी हंसी की लहर

तो कभी गुदगुदी का मंजर
होंठ पर तिरछी मुस्कान
दरवाजे का धीमे से किरियाते हुए
बोलना चींचींचीं
एकदम वही सब कुछ
जैसा तुम्हारे साथ है
जैसा मेरे साथ है
बस और कोई एवज नहीं
कोई और राह नहीं





बस में चलते जाना

पसीने की गंध
धकियाते हुए उतर जाना
नुक्कड़ पर ऑटो में
उस चेहरे को थाम लेना





कभी आजमाना तो कभी इतराना

सब कुछ आज का ही तो है
कभी डर से आम खा लेना
कभी तकरार में छिप जाना
सब आज ही तो है

शनिवार, मार्च 17, 2012

बस तुम



आँखें बंद
सब मद्धम
सुर लय
ताल थाप
बस तुम
बस हम
और नहीं
कुछ भी
जैसे साँसों का
आवागमन
हौले- हौले

गुरुवार, मार्च 15, 2012

अनमोल यादें




एक आँगन मेरा बस
और आ जाती हैं
ना जाने कितनी अनमोल यादें
चिहुंक उठता है मेरा मन
कभी अबोला तो
कभी सांसो का मद्धम शोर
यूँ ही कहीं भी
कभी भी

सोमवार, जनवरी 30, 2012

साइज जीरो की चक्करघिन्नी


इसे आप डायरी का एक पन्ना कह सकते हैं, जिसमे एक माँ ने अपनी नन्ही बच्ची के सवालों को कलमबद्ध किया है-
"मम्मा! साइज जीरो क्या है?" जैसे ही मेरी नन्ही बिटिया ने मुझसे यह सवाल पूछा मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं उसकी इस बात का क्या जवाब दूं। उसने मुझे न्यूजपेपर का वह पन्ना भी दिखाया जिस पर किसी हीरोइन की तस्वीर छपी थी और नीचे लिखा था साइज जीरो। काफी सोच-विचारकर मैंने उसे जवाब दिया- साइज जीरो यानी तुम्हारी साइज की, करीब दस-ग्यारह साल की लड़की। उसकी जिज्ञासा यहीं शांत नहीं हुई। उसने दुबारा पूछ लिया- यहां लिखा है कि यह हीरोइन कवेटेड (इच्छित) साइज जीरो की है। कवेटेड क्या होती है मम्मी? मुझे लगा कि मैं फिर से अटक गई। मैं अपनी नन्ही लाडली के रोजाना पूछे गए सवालों से परेशान हो जाती हूं। कभी उसे मेंसेज का मतलब पूछना होता है तो कभी ओरल सेक्स का तो कभी डेट रेप का। उसके मन में इतने सवाल होते हैं कि मैं सबके जवाब दे दूं फिर भी उसकी जिज्ञासा शांत नहीं होगी, यह मुझे भली-भांति पता है।
खैर, मैं जब तक उसे बताती, उससे पहले उसने डिक्शनरी में अर्थ ढूंढ निकाला। उछलते-कूदते मेरे पास आई और कहा कवेटेड का मतलब होता है- आपकी चाहत। है न मम्मा? तो क्या कुछ लड़कियां हमारे जैसी फिगर चाहती हैं। वे ऐसा क्यों चाहती हैं मम्मा? आखिर इसके पीछे का कारण क्या है? मुझे उस समय लगा कि मैं बहरी क्यों नहीं हूं। मुझसे इतने सवाल क्यों पूछे जाते हैं। मुझे अपने बचपन के दिन याद आने लगे, जब हमसे कक्षा में भी टीचर जी इतने सवाल नहीं पूछती थी। यही नहीं, जब हमारे मन में कोई सवाल उठता था तो हम अपनी मां से पूछने से भी डरते थे। कभी-कभार खुदा-न-खास्ता कोई सवाल पूछ डाला और मां का मूड ठीक नहीं रहा तो बकरे की खैर नहीं। उनके मुंह से बोलियों की झड़ी जो निकलती, वो थमती नहीं थी। और यदि बाबूजी या दादी से उन्हें डांट पड़ चुकी होती तो बस पूछो ही मत। तीन-चार धौल तो पीठ पर पड़ ही जाती थी मेरे। हमारे जमाने और अब के जमाने में कितना अंतर आ गया है, इसका पता तो इसी से चलता है कि पहले की फिल्मों में जहां प्यार के नाम पर दो फूलों को मिलते दिखाया जाता था तो वहीं अब की फिल्मों में लिप-लॉक तो आम बात है।
हां, फिल्मों के नाम से याद आया। मेरी बिटिया साइज जीरो के बारे में पूछ रही थी। मैंने उसे डांटा और कहा कि क्या तुम्हें कुछ और पढ़ने को नहीं है? क्या तुमने साइंस का वह चैप्टर खत्म कर लिया जो मैंने कल तुम्हें पढ़ाया था? जवाब धुआंधार मिला- हां मम्मा, कल ही पूरा हो गया था। फिर उसने पूछा, मम्मी प्लीज बताओ न हीरोइन साइज जीरो क्यों होना चाहती हैं? लगभग हारते हुए मैंने कहा- इसलिए क्योंकि वे फैट फ्री होना चाहती हैं ताकि स्क्रीन पर ग्लैमरस दिखें। तपाक से उसने कह डाला- पर मम्मा साइंस की किताब में तो लिखा है कि हेल्दी रहने के लिए प्रोटीन, विटामिन, मिनरल के साथ फैट की भी जरूरत फड़ती है। तो क्या किताब में गलत लिखा है? मुझे महसूस हो गया कि मैंने शेर के मांद में हाथ डाल दिया है। अब तो मुझे जवाब देना ही पड़ता, सो मैंने कहा- किताब में गलत नहीं लिखा है बेटा। हम आकर्षक दिखने के लिए कई बार गलत काम कर जाते हैं। जीरो फैट के साथ हमारे हार्मोंस काम नहीं करते। हार्मोंस क्या होते हैं मम्मा? और वे क्यों काम नहीं करते हैं? मैंने हार कर जवाब दिया- यह सब भूल जाओ बेटा, अपनी पढ़ाई करो या गेम खेलो। पर वह हार नहीं मानने वाली थी। उसने कहा- तो क्या मम्मा तुम साइज जीरो नहीं चाहती?
मेरी आंखों के सामने पिचकी कार सी मॉडल्स की तस्वीरें घूमने लगीं। मुझे वह समय याद आने लगा जब मैं भी वजन मापने की मशीन पर चढ़ जाती हूं। खैर! मैंने उसे कहा- बेटा! आकर्षक तो सभी दिखना चाहते हैं। मैं भी चाहती हूं लेकिन तुम्हारी जैसी नहीं। यह सुनकर वह अपने कमरे में चली गई और मैंने राहत की सांस ली। मैंने किचन में खाना पकाना शु डिग्री ही किया था कि फिर से चेहरे पर सवालों का मेकअप पोतकर सामने आ गई। मैंने पूछा- अब क्या? मम्मा बुलीमिया नर्वोसा क्या होता है? मैं चुप रही। क्या मैं इंटरनेट पर देख लूं? अब मैं चुप नहीं रह पाई, मुझे लगा कि मेरे अंदर काली मां जागृत हो गई हैं। मैंने बेलन हाथ में लिए कहा- यह सब तुम कहां पढ़ रही हो? बिटिया ने कहा- तुमने ही न्यूजपेपर पढ़ने कहा था। मैंने जवाब दिया- कुछ लोग खाते हैं और फिर उल्टी करके बाहर निकाल देते हैं ताकि वे दुबले रह सकें। यह कैंसर की तरह होता है, मुश्किल से ठीक होता है। ओह हो! मम्मा तो ये बेचारे कुछ नहीं कर पाते होंगे ना? कितने बीमार रहते होंगे, फिर ये कैसे फिल्मों में काम करते हैं? यानी कि बुलीमिया नर्वोसा का मतलब उल्टी करने वाला कैंसर है? और कवेटेड साइज जीरो ही उल्टी करने पर मजबूर करता है? मेरा मन किया कि मैं अपने बाल नोच लूं, खुद को आलमारी में बंद कर लूं ताकि मेरी बिटिया मुझसे सवाल पूछना बंद कर दे। मैंने उसे जवाब दिया- मुझे नहीं पता बेटा। चलो, हम लोग पड़ोस वाली आंटी के घर चलते हैं। उसने कहा- नहीं मम्मा, मेरी स्टेशनरी खरीदवाने चलो। मुझे लगा कि कम से कम कुछ समय के लिए तो मैंने मुक्ति जरूर पा ली है। दोनों खरीदारी के लिए निकल पड़े कि उसने पूछ डाला- अच्छा मम्मा, सेक्सुअल एपेटाइट क्या होता है? मुझे लगा कि मैं उसे छोड़कर भाग निकलूं। आखिर उसके इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था।

शनिवार, अक्तूबर 08, 2011

. थाली का प्यार


उसने एक बार फिर मुड़ कर देखा पर वो वहाँ नहीं था. वहाँ थी तो सिर्फ वीरानगी और मुट्ठी भर धूप. मुट्ठी भर धूप जो उसे आगे बढ़ने का इशारा कर रही थी. धूप भी तो जीवन में कई बार आती है. आती है और आपको उजास दे जाती है. ऐसी उजास जो जीने की ललक पैदा कर दे आपके अन्दर. पर जीने की ललक आखिर क्यों. जीवन सुंदर है, सब मानते हैं. है भी. और नहीं भी. जो रहता है एक बार, जरुरी नहीं हर बार रहे. जो बीतता है एक बार, जरुरी नहीं की हर बार बीते. लेकिन जो सच है, वो तो नहीं बदलता. बदलता है तो सिर्फ किरदार, सिर्फ चेहरे. जोकेरे से दिखने वाले हम, कई चेहरे हैं एक चेहरे के पीछे. कुछ लाल तो कुछ पीले. कुछ नीले तो कुछ हरे. एक ही चेहरे के पीछे कई चेहरे.
चेहरा, जीवन का बड़ा सच बताता है. इस जोकरनुमा चेहरे के लिए ये जीवन. या जीवन के लिए ये जोकरनुमा चेहरा. हाथ हैं कि बस चलते जाते हैं, ठीक उसी तरह जैसे मुंह चलता जाता है. यही मुंह कई बार कुछ नहीं बोलता. सिर्फ हिलता रहता है. कभी पैसों के लिए तो कभी जीवन की सचाइयों से भागने के लिए. बारिश भी कभी होती जाती है तो कभी थम सी जाती है. थमती नहीं है, सिर्फ थमने का एहसास सा देती है. मानो जीवन का यथार्थ बता रही हो. यथार्थ जो सत्य से परे नहीं, सत्य है.
ऐसा सत्य, जो ना जीने देता है और ना मरने. नींद भी ऐसी है कि बस जाती है या आने का नाटक करती है. नाटक, सब नाटक ही तो है. तो सत्य क्या है. प्यार छद्म है. इर्ष्या छद्म है. प्यार कभी होता है एक थाली में तो कभी उसी थाली में नहीं होता. गिर जाता है कहीं दूर. इतनी दूर कि उसे लाना मुश्किल हो जाता है. मुश्किल ही तो है सब. आसन हो तो सब जी ना ले ख़ुशी से.
माँ, बहुत याद आती है. हालांकि बचपन कि कोई भी ऐसी बात याद नहीं जब उसकी गोद में सर रखा हो. लड़ाई तो अब भी सबसे ज्यादा उससे ही होती है. पर माँ, वो भले ही मुंह फूला ले लेकिन बाद में अपनी बातों से बच्चे को बिना गले लगाये ही पुचकार लेती है. उसे आगे बढ़ने की राह दिखाती है, कई बार मजबूर भी करती है. सूरज के लिए तो कभी चाँद के लिए. सूरज जो गर्मी का एहसास तो देते हैं पर ज्यादा पास जाने से जला भी देते हैं. और चाँद भी, शीतलता की पुचकार देने के साथ ही ठण्ड से कंपकंपा देता है.
गर्मी और शीतलता का ये खेल बचपन में कभी नहीं देखती गुड़िया. गुड्डे गुड़िया के किस्से कहानियों में सब सुखद ही होता है. यही खेल जब जीवन बनता है तो गुड़िया कब की पुरानी हो जाती है. जी लेती है. जीने को मजबूर की जाती है. कभी कोई उसे खेलता है तो कभी कोई. लाल-गुलाबी कपडे और कहानियाँ सुना कर.