सोमवार, अगस्त 09, 2010

तीखा नमक


टूटती बिखरती
एक स्त्री
नहीं जानती
नहीं मानती
दुनिया के तमाम थपेड़े
जो कर देते हैं होम उसे
जला डालते हैं
मन को
रूखे कर जाते हैं
हाथ की कोमलता
होठों की अरुणाई
और माथे का उत्थान
उत्थान नहीं रह जाता
वो तो सपाट हो गया है
आँखें भी अब
चंचल नहीं रही
उनमें समा गया है
नमक तीखा
देर तक
एहसास देता तीखेपन का
एड़ी भी अब
नरम कहाँ रही
दरारें हो गयी उनमें
नेह कहीं गया है दरक
क्या उसे रही
चाह ज्यादा की